भाजपा का नहीं खुला खाता
1990 में कांग्रेस की वापसी हुई, फिर 1995 में रघुवंश नारायण सिंह जनता दल से जीतकर आए. 1996 में सामता पार्टी से बृशिन पटेल ने जीत हासिल की, जो भाजपा की सहयोगी थी—यह एकमात्र बार था जब भाजपा की छाया इस क्षेत्र में दिखाई दी, लेकिन पार्टी के अपने नाम पर कोई सीधी जीत नहीं मिली. इसके बाद 2000 में राजद, 2005 में लोजपा और राजद, 2010 में जदयू, और 2020 में फिर राजद के संजय कुमार गुप्ता ने जीत दर्ज की. इन सबके बीच भाजपा को या तो गठबंधन सहयोगी के तौर पर सीमित रखा गया या उम्मीदवार उतारने का मौका ही नहीं मिला.
भाजपा नहीं उतार पाई ,मजबुत चेहरा
भाजपा की अनुपस्थिति के पीछे कई कारण हो सकते हैं—यह क्षेत्र संभवतः यादव, मुस्लिम और ओबीसी बहुल है, जो परंपरागत रूप से राजद और कांग्रेस जैसे दलों के समर्थक रहे हैं। इसके अलावा भाजपा यहां कोई करिश्माई स्थानीय चेहरा खड़ा नहीं कर सकी, जबकि रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता जनता दल परिवार से निकलकर लंबे समय तक प्रभावी रहे. साथ ही, जब भी भाजपा ने जदयू या लोजपा के साथ गठबंधन किया, यह सीट सहयोगी दलों को दी जाती रही, जिससे भाजपा को खुद चुनाव लड़ने का अवसर नहीं मिला.
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क्या है बेलसंड की राजनितिक यात्रा ?
इस क्षेत्र की राजनीतिक यात्रा दिखाती है कि भाजपा के लिए यहां आज भी मजबूत जमीन तैयार नहीं हो सकी है. हालांकि, अगर पार्टी स्थानीय मुद्दों, युवाओं की आकांक्षाओं और सामाजिक असंतोष को ध्यान में रखकर रणनीति बनाए, तो भविष्य में बदलाव की संभावना बनी रह सकती है. यह कहानी सिर्फ एक सीट की नहीं, बल्कि बिहार में भाजपा की सीमित पैठ और रणनीतिक कमजोरियों का प्रतीक भी है.