Exclusive Interview: 2047 तक भारत को बनना है विकसित देश, तो 8% सालाना रखना होगा वृद्धि दर

Exclusive Interview: 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लक्ष्य पर पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने कहा कि यह तभी संभव है, जब देश की अर्थव्यवस्था सालाना 8% या उससे अधिक की दर से निरंतर वृद्धि करे. प्रभात खबर को दिए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में उन्होंने चीन की तुलना, 1991 के आर्थिक संकट, सोना गिरवी रखने की मजबूरी और लोकतांत्रिक व्यवस्था की चुनौतियों पर भी विस्तार से चर्चा की. उन्होंने कहा कि सपना देखना ठीक है, लेकिन अव्यवहारिक लक्ष्य दिखाना सही नहीं.

By KumarVishwat Sen | July 21, 2025 6:53 PM
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Exclusive Interview: भारत सरकार ने देश को आजादी के 100 साल पूरा होने पर वर्ष 2047 तक देश को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना देखा है. वह इस दिशा में प्रयासरत भी है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए योजनाएं भी बना रही है. भारत दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने वाली पांचवीं अर्थव्यवस्था है और उम्मीद की जा रही है कि यह बहुत जल्द ही जापान को पीछे छोड़ते हुए सबसे तेजी से बढ़ने वाली तीसरी अर्थव्यवस्था भी बन सकता है. लेकिन, भारत की तुलना चीन से की जा रही है. साल 1950 के दशक में जब चीन में माओत्से तुंग का शासन था, तब चीन ने अगले 100 साल में देश को दुनिया की महाशक्ति बनाने का सपना देखा था. हालांकि, उस समय भारत चीन के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से आगे बढ़ रहा था. लेकिन, बीच के बरसों में ऐसी भी स्थिति आई, जब देश के पास 7 अरब डॉलर का भी विदेशी मुद्रा भंडार नहीं था और देश को सोना गिरवी रखना पड़ा था. इन तमाम मुद्दों पर प्रभात खबर डिजिटल के संपादक जनार्दन पांडेय ने देश के पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा से खास बातचीत की है. हम पेश कर रहे हैं एक्सक्लूसिव इंटरव्यू की पहली कड़ी. पढ़िए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू का प्रमुख अंश…

जनार्दन पांडेय: मैं ध्यानाकर्षण करना चाहता हूं. वह ध्यानाकर्षण यह है कि क्या भारत 2014 के बाद बदल गया है? यह पहला सवाल है मेरा आपसे.

यशवंत सिन्हा: देखिए, भारत 2014 में बदला. उसके पहले 2004 में बदला. उसके पहले 1989 में बदला. आपने जो मेरा परिचय दिया, तो उसमें जाहिर है कि मेरा एक लंबा अनुभव रहा. और कभी… सचमुच में… उसी जो धारा थी, उसमें एक हिस्सेदार बनकर… कभी अगल-बगल से उसको देखकर. अगर मैं कहूं कि 1956-58… मतलब इतने दशकों से मैं भारत की जो व्यवस्थाएं हैं उनको देख रहा हूं, जिसमें राजनीति प्रमुख कि राजनीति में क्या उतार-चढ़ाव हुए. सब कुछ तो इसलिए उस मामले में मेरा एक लंबा अनुभव है. 2014 में उसी कड़ी में एक बदलाव हुआ.
उसके पहले मैं आपसे कहूंगा कि एक बड़ा बदलाव 1977 में हुआ था. जो कि बिल्कुल अप्रत्याशित था. उसके पहले जेपी का आंदोलन हुआ था. बिहार से शुरू हुआ और फिर पूरे देश में गया. देश में आपातकाल लग गया. फिर उसके बाद चुनाव हुआ. चुनाव में इतने आमूलचूल परिवर्तन हो गए, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. किसी ने कल्पना नहीं की थी कि इंदिरा गांधी जैसी नेता हार जाएंगे अपना चुनाव. उनके जो सुपुत्र थे संजय गांधी, वो अपना चुनाव हार जाएंगे. उस समय टीवी का जमाना नहीं था. मैं दिल्ली में था. उस समय मुझे याद है कि हम लोग बहादुर शाह जफर रोड पर खड़े होके… हजारों लोग… जो इंडियन एक्सप्रेस की खबर का एक स्क्रीन लगा हुआ था. उसमें खड़े हो के देख रहे थे कि कौन जीता कौन हारा. तो बहुत सारे परिवर्तन हुए हैं. 2014 में भी परिवर्तन हुआ. सत्ता में परिवर्तन हुआ. ठीक है. एक जो सरकार थी 10 साल से, वह बाहर हुई और एक नई सरकार बनी और वो सरकार अभी तक चल रही है. लेकिन, परिवर्तन जो है, वो जिंदगी का एक हिस्सा है. जिंदगी चलती ही है परिवर्तन के आधार पर. और इसलिए परिवर्तन से किसी को तकलीफ नहीं होनी चाहिए. किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. आगे भी परिवर्तन होगा.

जनार्दन पांडेय: मैं जिस तरफ आपको ले चलना चाह रहा हूं, सच वह है कि साल 1948 में माओत्से तुंग चीन के सर्वेसर्वा बनते हैं. वे मिलते हैं सिंगापुर के ली क्यून यू से. पेंग और इनकी जोड़ी होती है. वे एक सपना देखते हैं अपने देश के लिए कि 100 साल बाद हम चीन को कहां देखना चाहते हैं?

यशवंत सिन्हा: कई तथ्य, कई आंकड़े और कई दलील कहती हैं कि तब भारत चीन से आगे था.

जनार्दन पांडेय: लेकिन, आज चीन की स्थिति हमारी तुलना में बहुत बेहतर है. तो ऐसा हुआ क्या कि चीन आगे चला गया और हम आगे नहीं जा पाए और क्या उस कड़ी में 2014 का कोई योगदान?

यशवंत सिन्हा: देखिए, हर देश अपने रास्ते चलता है. उसकी अपनी व्यवस्था होती है और एक पुराना डिबेट ये है, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत वर्षों से चल रहा है भारत और चीन के बीच में एक कंपैरिजन. आपने जिक्र किया कि हमने जर्मनी में साढ़ तीन चार साल भी बिताए थे.

जनार्दन पांडेय: बॉन शहर में

यशवंत सिन्हा: बॉन में भी थे, फ्रैंकफर्ट में भी थे. उस समय यह चरम पर था भारत और चीन. उस समय चीन आगे बढ़ रहा था. भारत भी आगे बढ़ रहा था. चीन ज्यादा तेजी से आगे बढ़ रहा था.

जनार्दन पांडेय: ओके. सर ये साल बात 1973-74 की कर रहे हैं?

यशवंत सिन्हा: हम 1973, 1974 और 1975… इस समय की बात कर रहे हैं और उस समय लोग बहुत फख्र के साथ हम विदेशियों को यह बात कहते थे कि भारत में जो आर्थिक तरक्की हो रही है वो एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में हो रही है. चीन में जो कुछ हो रहा है, वह एक अधिनायकवादी व्यवस्था के अंतर्गत हो रहा है और उसमें यह है कि चीन की राजधानी से अगर सरकार की तरफ से हुक्म आएगा तो तत्काल उसका पालन होगा.
भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं है. भारत में कोई अधिनायकवादी व्यवस्था नहीं चल सकती है. व्यवस्था बराबर प्रजातांत्रिक रहेगी. एसेम्बली में… पार्लियामेंट में चर्चा होगी. राष्ट्रीय सहमति बनेगी और उस रास्ते अगर प्रजातंत्र के रास्ते आप चलते हैं, तो मेरा अनुभव जो है व्यक्तिगत अनुभव… वित्त मंत्री के नाते… वह यह है कि आप दो कदम आगे बढ़ते हैं, लेकिन हो सकता है कि परिस्थितियां ऐसी बनेगी कि आपको एक कदम पीछे हटाना पड़ेगा. तो फिर आप दो कदम आगे बढ़ते हैं. फिर तो यह आपका जो आपकी जो प्रगति है, वह आवश्यक रूप से स्लो हो जाती है. क्योंकि, आपकी व्यवस्था अलग है. इसीलिए भारत और चीन की तुलना, जो आज भी लोग कर रहे हैं, मैं मानता हूं इस बात को मैं…मैं खुद… मुझे खुद आश्चर्य होता है कि चीन ने इतनी तरक्की कैसे कर ली? इतनी तरक्की? मैं आपको बताना चाहूंगा कि मैं पहली बार चीन गया था.

जनार्दन पांडेय: कौन सा साल था? उस समय आप राज्यसभा गए थे?

यशवंत सिन्हा: नहीं, उस समय मैं उस समय सरकारी नौकरी में ही था. 1986 के बाद मैंने छोड़ा था. तो मैंने देखा कि उस समय चीन तरक्की के शुरुआती दौर में था. सब लोग माओ की तरह वह अपना जो डेनिम के कपड़े का ड्रेस पहना करते थे. पूरे चीन की राजधानी पेइचिंग में लोग साइकिल पर चलते थे. बीजिंग और उसको लोग पेइचिंग भी बोलते हैं. और उसमें सब्जी की दुकान लगती थी तो बड़ी बात मानी जाती थी कि किसानों को मौका मिल गया. शहर में आकर सब्जी बेच सके. धीरे-धीरे करके लेकिन चीन हमसे बहुत आगे बढ़ गया. अब वह तरक्की उसी व्यवस्था में हो सकती थी जो चीन की अधिनायक वादी बेबस भारत की जो व्यवस्था थी प्रजातंत्र की, उसमें उस तरह की तरक्की नहीं हो.

जनार्दन पांडेय: जिस दौर का आपने जिक्र किया. आपकी राजनीति के सबसे अहम साल हैं. वहीं से शुरू होते हैं. 1990 में आप… भारत के मुख्य सत्ता जो चल रही थी, उसका हिस्सा थे. चंद्रशेखर जी की सरकार थी और आप बता रहे हैं कि उस दौर में अगर ग्रामीण शख्सियत चीन से निकलकर के शहर में बेचने के लिए चले जाते थे, तो मानते थे कि बड़ी चीज होगी. 1991 में हमारी इकॉनमी खुलती है और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री होते है. बाद के दिनों में उन्हीं मनमोहन सिंह को देश की सत्ता संभालने का अवसर मिलता है. हालांकि, आपने जिक्र किया कि सबके कई बार दो कदम आगे जाएंगे, तो पीछे जाने की स्थिति भी. अपने अनुभव के आधार पर आपने बताया है. और उस वक्त में आप सबसे गहन अध्ययन और सबसे ज्यादा जुड़े हुए थे. कुछ महसूस कर पाते हैं, कुछ हमें पता चल पाता है कि एक्चुअली क्या फर्क वहां हुआ, क्या फर्क देखें?

यशवंत सिन्हा: उस समय की स्थिति अगर आप देखेंगे, तो हमारी जो आर्थिक स्थिति थी, वह बहुत ही खराब थी. हमारा जो विदेशी मुद्रा का भंडार था, क्योंकि 1980-90 के अंत में और 1990 के शुरू में. प्रथम भाग में है. फर्स्ट सिक्स मार्क्स. हम देश के वित्त मंत्री थे. अमेरिका और इराक का युद्ध चल रहा था. तेल की कीमतें बहुत बेतहाशा बढ़ी हुई थी. सप्लाई भी कहीं न कहीं प्रभावित थी. अचानक हमारे देश के सामने बहुत कठिन परिस्थिति आ गई. उसी कठिन परिस्थिति का यह नतीजा हुआ कि हमको अपना एक सोना जो था स्टेट बैंक के पास… रिजर्व बैंक के पास का सोना नहीं… स्टेट स्टेट बैंक के पास जो है, यह स्मगलिंग वाला गोल्ड होता है, वह जमा होता है. स्टेट बैंक पास तो उसकी मात्रा को हमको गिरवी रखना पड़ा था, ताकि हमको कुछ फॉर्म एक्सचेंज मिले और हम देश की अर्थव्यवस्था को सपोर्ट कर सकें. यह गुरबत की हालत थी. अब हम लोग 700 बिलियन डॉलर की बात करते हैं. उस समय सात बिलियन भी एक सपना था. देश उस दौर से भी गुजरा है. मैंने जो एक पुस्तक लिखी है. उसमें मैंने कहा है कि मैंने उसी समय जब उस फाइल पर हमने हस्ताक्षर किया कि भारत के सोने को गिरवी रखा जाए. उसी बाद उसी समय मैंने यह भी प्रण किया कि अगर मुझे मौका मिला तो मैं भारत को इस तरह की परिस्थिति में दोबारा फंसने नहीं दूंगा. वो 1991 की बात थी. 1998 में फिर मुझे वित्त मंत्री बना दिया गया अटल जी के साथ सरकार में. वह मौका मेरे पास आ गया और तब से लगातार मेरा प्रयास यह रहा कि हम यह जो आर्थिक संकट है, जिसमें विदेशी मुद्रा का संकट सबसे भयानक होता है, उससे हम देश को बचाकर आगे निकालें. यह हमारा मकसद था. मनमोहन सिंह जी हमारे बाद ही देश के वित्त मंत्री बने थे. ठीक उसके बाद और उन्होंने जो सुधार किए, यह रिकॉर्ड का विषय है. उस समय इन सुधारों की चर्चा सरकार में शुरू हुई. अच्छा… और कोई भी सरकार आती, तो वह सुधारों से वह बच नहीं सकती थी. आर्थिक सुधार करना ही पड़ता. तो आर्थिक सुधार का दौर शुरू हुआ. भारत में वह चलता रहा. जब 1998 में हम देश के वित्त मंत्री बने, तो हमने उसको और आगे बढ़ाया. हमारे पहले चिदंबरम बने. उन्होंने भी आगे बढ़ाया. हमने भी आगे बढ़ाया और एक तरह से एक राष्ट्रीय सहमति बन गई. इन सुधारों के बारे जो शुरू में नहीं थी. हर कदम पर संघर्ष करना पड़ता था. तब आप एक कदम उठाते थे. इसलिए, मैंने कहा कि कदम आगे बढ़िए, दो कदम पीछे पीछे जाना. दो कदम आगे बढ़ी, एक कदम पीछे. इस तरह आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ और आर्थिक सुधारों के चलते वृद्धि. देश ने जो कुछ पाया, वह आज देश के सामने है. अगर आज हमारे पास 700 बिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है तो आप समझ सकते हैं कि एक बिलियन डॉलर पर हम थे. वहां से कितनी दूर आगे आ गए.

जनार्दन पांडेय: लंबे समय तक आपका अर्थव्यवस्था और इसके आसपास का अनुभव है. आज की स्थिति को आप देख रहे हैं. आपको लगता है कि हम उसी दिशा में है और यही होने वाला है?

यशवंत सिन्हा: देखें, सपने देखना अच्छी बात है. सपने दिखाना अच्छी बात नहीं है, लेकिन राजनीति अगर इसी पर आधारित हो जाए कि हम सपने दिखाएंगे तो फिर चिंता का विषय है मेरे जैसे व्यक्ति के लिए. अब आपने विकसित देश की बात की. 2047. सारे अर्थशास्त्रियों का मानना है कि 2047 में विकसित विकसित देश बनने के लिए भारत की अर्थव्यवस्था को प्रति वर्ष 8% प्लस की दर से आगे बढ़ना पड़ेगा. यह हमारा विकास दर होना चाहिए. आज हमारी विकास दर कितना है? 6.4 से ज्यादा. दोनों में लगभग 2% का फर्क है. जीडीपी का 2%… तो क्या यह संभव है कि आज से लेकर 2047 तक भारत लगातार 8% प्लस की दर से आगे तक जाएगा? मुझे नहीं लगता है कि यह संभव है, क्योंकि अगर किसी साल हम 6% पर हैं तो अगले साल हमको 10% करना पड़ेगा. इसलिए मैं कह रहा हूं कि सपना देखना अच्छी बात है. गलत सपना लोगों को दिखाना, यह गलत है. यह जो हम विकसित देश की बात करते हैं, मुझे नहीं लगता है कि 2047 तक यह संभव होगा, क्योंकि कुछ भी हो जाए, भारत की अर्थव्यवस्था को 8% प्रति वर्ष की दर से आगे बढ़ना संभव नहीं होगा.

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