जसबीर सिंह (जनरल मैनेजर, एसबीआई, रिटायर्ड)
यूं तो भारतवर्ष में बैसाखी महीने को नये साल के त्योहार के रूप में मनाया जाता है. 2024 में यह 13 अप्रैल को मनाई जाएगी. फसलें कटती हैं और किसान अपनी कड़ी मेहनत के बाद हर्षोउल्लास के साथ कुछ आराम पा लेता है. इन दिनों प्रकृति भी अपनी भरपूर सुंदरता बिखेरती है. सभी खुशी के ‘मूड’ में आ जाते हैं. परन्तु सिखों के लिए बैसाखी खालसा सृजन दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसी दिन गुरु गोविन्द सिंह जी ने 1699 में ‘खालसा’ का सृजन किया था.
इसकी जरूरत क्यों पड़ी
इसको जानने के लिए उस वक्त की पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक होगा. औरंगजेब का शासन काल था और समाज 4 वर्णों में विभाजित था. शूद्र और दलितों की अत्यंत ही दयनीय दशा थी. उन्हें समाज के उच्च वर्गों से आये दिन भीषण यंत्रणाएं झेलनी पड़ती थीं. गुरु गोबिन्द सिंह जी ने देखा कि ऊंच-नीच, बडे़-छोटे विभिन्न धार्मिक वर्गों में बंटा समाज बुरी तरह से खण्डित हो चुका है. आपस के विवादों से समाज शक्ति-विहीन हो गया है, जिसका भरपूर लाभ मुगल उठा रहे थे. छोटे वर्ग के लोग बड़ों द्वारा पददलित हो रहे थे और वे दीन-हीन भावना से बुरी तरह ग्रसित होकर समाज के मात्र कीड़े बनकर रह गए थे.
आपने दृढ़ संकल्प किया कि ये जो समाज की शक्ति बिखर गई है. इसे समेटना होगा, लोगों में जनशक्ति का संचार करना होगा, उनके स्वाभिमान को जगाना होगा और उनमें अदम्य उत्साह भरकर गीदड़ों में शेर की शक्ति लानी होगी, उनकी मानसिकता बदलनी होगी ताकि वो सदैव शक्ति पुंज बनकर तुर्कों के अत्याचारों से जूझ सकें और उन्हें परास्त कर सकें. इसी संदर्भ में आपने उद्घोष किया.
‘मानस की जात सभै एकै पहिचानबो’
उन्होंने बैसाखी वाले दिन देश भर में फैले हुए लोगों का एक विशाल जन-सम्मेलन आनन्दपुर साहिब में बुलाया और उसमें एक कड़ी परीक्षा द्वारा 5 व्यक्तियों का चयन किया. इन पांच व्यक्तियों में एक खत्री, एक जाट, एक धोबी, एक कहार और एक नाई जाति का था. यह भी मात्र एक संयोग था कि इनमें एक पंजाब, एक उत्तर प्रदेश, एक गुजरात, एक उड़ीसा और एक कर्नाटक का था. विखंडित भारत को संगठित करने का यह सर्वप्रथम प्रयास था.
गुरु जी ने इन्हें अमृत पान कराकर “पांच प्यारे” कहा और इनके नाम के साथ सिंह जोड़ दिया. तत्पश्चात् स्वयं भी उनके हाथों से अमृत पान किया और गोविंद राय से गोबिन्द सिंह हो गए. सबों को बराबरी का दर्जा प्रदान करते हुए आपने विनम्रता का यह उच्च कोटि का उदाहरण पेश किया. इसलिए भाई गुरदास जी ने कहा :-
“वाह-वाह गोबिंद सिंह आपे गुरु चेला”
इस अमृत-पान से लोगों की मानसिकता बदल गयी. स्वयं को दीन-हीन समझने वाले, जाति-कर्म से अभिशप्त लोगों में अद्भुत क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ और सभी जो सदियों से हीन भावना से ग्रसित और शोषित हो रहे थे, अब शेर बनकर जीवन क्षेत्र में आत्मविश्वास से परिपूर्ण सिर उठाकर सिंह गर्जना कर रहे थे.
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इसी संदर्भ में संगत एवं पंगत की प्रथा भी जीवन का हिस्सा बन गयी – जिसका भाव है कि सभी लोग मिलजुल कर प्रभु का गुणगान करते हैं तथा ऊंच-नीच की बेड़ियों को तोड़ते हुए एक साथ पंगत (पंक्ति) में बैठकर लंगर (भोजन) ग्रहण करते हैं, जो समानता व एकता की भावना को परिपोषित एवं सुदृढ़ करता है.
आश्चर्य है. इतनी सदियों के बाद भी हम वर्ण-विभाजन के अभिशाप से पूर्ण-रूपेण मुक्त नहीं हो पाए हैं. अपने नाम के बाद उपनाम भी लिखते हैं जो जाति को इंगित करता है. कहने की आवश्यकता नहीं कि इससे समाज और देश की जड़ें कमजोर होती हैं और हम एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरने से पीछे रह जाएंगे.
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