कर्म करो, फल की चिंता मत करो
गीता में कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन का संदेश दिया गया है. इसका अर्थ है- व्यक्ति को परिणाम की चिंता किए बिना केवल अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए. यह सोच तनाव और अस्थिरता को दूर कर आपके कार्य के प्रति समर्पण बढ़ाती है.
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मन पर नियंत्रण जरूरी
गीता में इंद्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः का उपदेश दिया गया है. इसका मतलब है कि जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों और मन पर नियंत्रण कर लेता है, वही सच्चा ज्ञानी और संतुलित जीवन जीने वाला होता है. इससे आपमें अनुशासन आने के साथ साथ धैर्य भी आएगा.
समता की भावना अपनाएं
गीता में समत्वं योग उच्यते की बात कही गयी है. यानि सुख-दुख, सफलता-विफलता, लाभ-हानि इन सभी में जो व्यक्ति समान रहता है, वही सच्चा योगी है. यह व्यक्ति को मानसिक रूप से मजबूत और भावनात्मक रूप से स्थिर बनाती है.
संदेह नहीं, विश्वास जरूरी है
गीता में संशयात्मा विनश्यति का मंत्र दिया गया है. इसका मतलब है कि जो व्यक्ति हर बात में संदेह करता है, उसका नाश निश्चित है. खुद में विश्वास रहने से आपमें स्पष्ट निर्णय लेने की शक्ति बढ़ेगी.
क्रोध और लोभ को छोड़ें
गीता में काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः का उपदेश दिया गया है. अथार्त क्रोध और वासना मनुष्य को पतन की ओर जाती है. क्रोध और लोभ का छोड़ने से आपमें शांत, संतुलित और प्रभावशाली व्यवहार का निर्माण होगा.
ज्ञान और विवेक का विकास करें
गीता में तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया का उपदेश दिया गया है. जिसका मतलब है कि सच्चा ज्ञान सेवा, श्रद्धा और जिज्ञासा से प्राप्त होता है. यह सोच व्यक्ति को विनम्र, नयी चीज सीखने के लिए तत्पर और सामाजिक रूप से आकर्षक बनाती है.
आत्मा अजर-अमर है
गीता में न जायते म्रियते वा कदाचित् की बात कही गयी है. इसका अर्थ है कि आत्मा का कोई जन्म-मरण नहीं होता, वह शाश्वत है. यह दृष्टिकोण मनुष्य को मृत्यु के भय को खत्म कर, जीवन के असली उद्देश्य के बारे में बताता है.
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