गौरैया का मानव के साथ क्यों टूटा 5 हजार वर्ष पुराना नाता ? अब सुनाई नहीं पड़ती इनकी चहचहाहट

World Sparrow Day 2023: गौरैया की संख्या में 80 प्रतिशत की कमी आई है अब मात्र 20 प्रतिशत ही बची हैं. पहले जहां लोगों के घरों के आसपास फुदकती रहती थीं आज कहीं नजर नहीं आतीं न ही इनकी चहचहाहट सुनाई पड़ती है जानें जो गौरैया बची हैं वो अब आखिर कहां हैं?

By Anita Tanvi | March 20, 2023 11:45 AM
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World Sparrow Day 2023: मानव के लाइफस्टाइल में, रहने, खाने के तरीके में जिस तरह के चेंजेज आये हैं उसके कारण गौरैया को भी अपने लाइफस्टाइल में बदलाव लाना पड़ा है. वे समझ गई हैं अब वे मानव के घरों के आसपास नहीं रह सकतीं ऐसे में उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए, अपना जीवन बचाने के लिए नया ठिकाना खोज लिया. प्रभात कुमार ( रिटायर्ड चीफ जेनरल मैनेजर, सिविल एंड एनवायरमेंट, कोल इंडिया) जो पिछले 20 सालों से बटरफ्लाई और झारखंड के रिच बायो डायवर्सिटी पर स्टडी कर रहे हैं. इन्होंने बताया कि गौरेया जो इंसानों के घरों को ही अपना घर समझती थीं आज कहां और किस हाल में हैं.

गौरैया का इंगलिश में नाम है हाउस स्पैरो और इसका साइंटिफिक नेम है पासर डोमेस्टिकस. इन दोनों नाम में हाउस और डोमेस्टिक दोनों आता है. क्या कभी सोचा है ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि गौरेया का मानव सभ्यता के साथ आज से कम से कम 5 हजार साल पुराना नाता है. गौरेया ने हमेशा ही मानव के साथ रहना पसंद किया है. जहां मानव की बस्ती है, सभ्यता है उसी स्थान पर गौरैया भी रहती थी. क्यों रहती थी इस प्रश्न का जवाब यह है कि पूराने समय में जब महिलाएं अपने छत पर न, गेंहू जैसे अनाज सुखातीं थीं, अनाज दरती थीं, तो उससे गौरेया को दाना-पानी मिलता रहता था और उकना जीवन आसानी से चलता था. जानकर आश्चर्य होगा कि गौरैया एक ऐसी चिड़या है जो जंगल में नहीं पाई जाती, घास के लंबे-बड़े मैदानों के आसपास नहीं पाई जाती है, पहाड़ों पर 7 हजार फीट के नीचे ही जहां मानव की गृहस्थी और बस्ती है वहीं इसका भी वास होता है. रेगिस्तान में भी जहां मनुष्यों का वास नहीं है वहां ये नहीं पाई जातीं.

1980 के बाद से यह बात समाने आई है कि गौरैया की संख्या में भारी कमी आई है और यह कमी 80 प्रतिशत तक दर्ज की गई है. यह कमी सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अमेरिका, युरोप समेत पूरी दुनिया भर में देखी गई है. झारखंड में भी गौरैया का बसेरा हमेशा से रहा है.

गौरैया की संख्या में कमी के कारण की बात करें तो वह है इनके रहने के स्थान, भोजन में कमी. सबसे पहले वो ऐसी जगहों पर रहती थी जहां लोगों के घर की दीवारों में कहीं टूटी-फूटी जगह होती थी, छेद, टूटे पाइप लाइन जहां प्रकाश और हवा आती थी ऐसी जगहों पर गौरैया का वास होता था लेकिन अब जिस तरह कंक्रीट की घरें बन रही हैं उसमें उनके लिए कोई जगह नहीं बची. इसके अलावा पेड़ों का कटना, पार्यवरण प्रदूषण, कैमिकल का छिड़काव जिससे कीड़े-मकोड़ों की कमी के कारण उनके खाने पर असर हुआ. बता दें कि गौरैया सिर्फ अनाज ही नहीं बल्कि छोटे कीट, पतंगें, पत्तियां भी खाती हैं. ऐसे में केमिकल के छिड़काव से उनके खाने पर असर हुआ. जिससे मानव के साथ गौरैया का जो 5 हजार सालों का संबंध था वह आज टूट चुका है. उनके जीवन पर संकट आया और आज स्थिति यह है कि गौरैया की संख्या 100 प्रतिशत से आज मात्र 20 प्रतिशत रह गई है.

गौरैया का जीवन 3 साल से 10 साल तक होता है. जो बाहर रहती हैं उनका जीवन 3 से 4 साल जबकि गौरैया जो पालतू हैं उनका जीवन लंबा होता है जोकि 10 साल तक हो सकता है.

गौरैया के बिहेवियर की बात करें तो ये काफी तेज चहचहाती हैं और ग्रुप में रहना पसंद करती हैं. यानी ये अपने आप में सोशल बर्ड हैं. इनका चोंच छोटा होता है साथ ही काफी मजबूत भी होता है, जिससे ये दाने और कीड़े-मकोड़े दोनों खा सकती हैं. गौरैया की लंबाई करीब 15-16 सेंटीमीटर की होती है, दोनों पंख खोल दें तो उसका विस्तार 22 सेंटीमीटर के आसपास होता है. इसका वजन करीब- करीब 30 ग्राम होता है.

मेल और फीमेल गौरैया का रंग अलग-अलग होता है. मेल का रंग छाती के पास गहरा काला, डार्क ब्राउन धब्बा होता है, गर्दन के पास पैचेज होता है जोकि फिमेल में नहीं होता है.

अभी गौरैया की संख्या में भारी गिराव आई है जिससे ठीक करने के लिए थोड़ा प्रयास की जरूरत है. इसके लिए अपने घर के छत के नीचे निकले हुए भाग में कार्ड बोर्ड आदि का घोसला बना सकते हैं. ऐसा करने पर ये घरों के आसपास आ सकती हैं. दाना-पानी रख सकते हैं. गौरैया को सबसे ज्यादा मिट्टी की दीवारें पसंद होती हैं.

गौरैया एक बार में तीन अंडे देती हैं जिनपर पीले, हरे रंग के स्ट्राइप होते हैं. गौरैया सूखे टहनी, पंख, पत्तियां, सॉफ्ट धागों की मदद से घोसला बनाती हैं एक बात जो बहुत ध्यान देने की है वो यह है कि ये पेड़-पौधे पर कभी भी घोसला नहीं बनाती हैं. जब भी ये घोसला बनाती हैं तो मानव के घर के दीवारों की छेद, टूटे पाइप आदि में ही बनाती हैं.

इनके दुश्मन भी होते हैं. सबसे प्रमुख शत्रु की बात करें तो वो है बिल्ली, दूसरा है बाज और तीसरे प्रमुख शत्रु की बात करें तो गिलहरी जो इनके अंडे चुरा कर खा जाती हैं.

गौरेया की उड़ान की बात करें तो ये ऊंचे आकाश में उड़ान नहीं भरतीं हैं. ये 30 से 40 फीट ऊंचा उड़ती हैं. जमीन से ऊंचा होकर पंख तेजी से फड़फड़ाती हैं और बीच में रोक देती हैं फिर थोड़ी देर में फड़फड़ाती हैं. इसी प्रैक्टिस को बार-बार दोहराते हुए उड़ती हैं.

अपने बच्चों के पालन-पोषण के दौरान गौरेया चोंच से एक बार में 3 से 4 दाना लेकर उन्हें खिलाती हैं. और ऐसा उन्हें दिन भर करना पड़ता है. बच्चों की वृद्धि करीब 21 दिनों में होती है और 1 महीने में शिशु गौरेया उड़ान भरने लगते हैं.

अब प्रश्न यह उठता है कि 100 प्रतिशत में से जो 20 प्रतिशत गौरैया बचीं हैं वे अब कहां हैं? इसका जवाब यह है कि गौरैया ने भी अपने लाइफ स्टाइल यानी अपने जीवन की पद्धिति में कुछ बदलाव कर लिये हैं. वैसी गौरेया जो अंडे नहीं देती हैं वे अब ग्रुप में यानी हजारों की संख्या में किसी एक पेड़ पर रहने लगी हैं इसके अलावा ऐसे कुंए जो सूख गये हैं और उनके बीच-बीच में खोहड़ बने हैं उसमें रहती हैं जिससे वे खुद को सुरक्षित रख सकें. इसके अलावा वैसी जगहें जहां बड़े पैँमाने पर अनाज का भंडराण होता है वैसी जगहों के आसपास रहती हैं. ऐसा इन्होंने खुद को बचाने के किया है ताकि अपने शत्रुओं से बचे रहें.

नेचर प्रेमी प्रभात कुमार ने एक किस्सा शेयर करते हुए बताया कि 1980 के दौरान मैं रोज सवेरे 7 बजे के आसपास अपने छत पर कुछ अन्न का दाना छिंट देता था. अपने समय से दाना चुगने हर दिन 3 से 4 पेयर गौरैया आती थीं और दाना खा कर चली जाती थीं. 1 महीने के बाद मैंने नोटिस किया कि गौरेया अब दाना खुद नहीं खा रहीं थीं बल्कि अपने चोंच में दबा कर कहीं ले जा रही थीं. यह सिलसिला करीब–करीब 21 से 22 दिनों तक चला. एक दिन ये गौरैया के जोड़े अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ पहुंचे जिसकी संख्या 17 से 18 के करीब थीं जिसमें 12 के करीब बच्चे थे ये सभी मेरे पास रेलिंग पर सामने बैठ गईं और मेरे तरफ देखते हुए खूब जोर-जोर से चहचहाने लगीं. चूंकि प्रकृति प्रेमी हूं तो कैमरा मेरे पास रहता था लेकिन यह नजारा क्लिक करने के लिए जैसे ही मैंने कैमरा उठाया वे एक साथ मेरे सिर के ऊपर से करीब 5 फीट की ऊंचाई से किसी फ्लाईट के जैसे उड़ीं जैसे मेरा शुक्रिया कहने आईं थीं. यह घटना आज भी मन में बसी है जिसका प्रमाण तो नहीं है लेकिन उस वक्त की अनुभूति आज भी है. हालांकि उसके बाद वे कभी नहीं आईं शायद उन्होंने अपना स्थाना बदल लिया. ये घटनाएं बताती हैं कि पक्षियों में भी संवेदना होती है जिसे हम मानव अक्सर या तो समझ नहीं पाते या इग्नोर कर देते हैं.

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