डॉ राधाकृष्णन को मिला था पहला भारत रत्न
Teachers Day Special: भारतीय शिक्षाविद व देश के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति रहे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को वर्ष 1954 में स्वतंत्रता सेनानी सी राजगोपालाचारी और भौतिकशास्त्री डॉ सीवी रमन के साथ सबसे पहले भारत रत्न से सम्मानित किया गया था. 5 सितंबर, 1888 को जन्मे राधाकृष्णन के पिता की ख्वाहिश थी कि उनका बेटा एक पुजारी बने. वे नहीं चाहते थे कि उनका बेटा अंग्रेजी सीखे और शिक्षक बनें, लेकिन राधाकृष्णन ने अपनी जिद से पढ़ाई जारी रखी. आगे चलकर उन्होंने फिलोसोफी में एमए किया और वर्ष 1916 में मद्रास रेजिडेंसी कॉलेज में फिलॉसफी के असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में पढ़ाना शुरू किया. कुछ साल बाद ही वे प्रोफेसर बन गये. वर्ष 1949 से 1952 तक वे रूस में भारत के राजदूत पद पर भी रहे. इसके बाद वर्ष 1952 में उन्हें भारत का पहला उपराष्ट्रपति चुना गया और फिर वे राष्ट्रपति बने. शिक्षकों के सम्मान की खातिर उन्होंने अपने जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाये जाने की इच्छा रखी.
गांधी भी मानते थे गोखले को अपना गुरु
गोपाल कृष्ण गोखले एक महान समाज सुधारक और शिक्षाविद थे. उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को भी अनुकरणीय नेतृत्व प्रदान किया. महात्मा गांधी ने भी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु माना. गोखले का मानना था कि भारतीयों को पहले शिक्षित होने की आवश्यकता है. तभी नागरिक के तौर पर हम अपनी आजादी हासिल कर पायेंगे. यही वजह रही कि गोखले ने राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा बनने से पहले अपना जीवन एक शिक्षक के रूप में आरंभ किया. वे पुणे के एक स्कूल में शिक्षण कार्य करने लगे. पुणे के प्रतिष्ठित फर्ग्युसन कॉलेज के संस्थापक सदस्यों में से वे एक थे. अपने बाल्यकाल में निर्धनता की वजह से गोखले को शिक्षा प्राप्त करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. इस कारण वे शिक्षा की अनिवार्यता व उसके निशुल्क होने पर भी जोर देते रहे. भारतीय शिक्षा के विस्तार के लिए वर्ष 1905 में उन्होंने सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की. वर्ष 1908 में गोखले ने रानाडे इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक्स की स्थापना की. उन्होंने मोबाइल पुस्तकालयों और स्कूलों की व्यवस्था की.
इस तरह रवींद्रनाथ टैगोर कहलाये ‘गुरुदेव’
रवींद्रनाथ टैगोर सिर्फ कवि, गीतकार, लेखक ही नहीं थे, बल्कि देशवासियों में स्वतंत्रता की अलख भी जगा रहे थे. अक्तूबर, 1905 में जब लार्ड कर्जन ने बंगाल को दो भागों में बांटने का प्रयास किया तो इसके विरोध में रवींद्रनाथ टैगोर ने भी मोर्चा संभाल लिया था. टैगोर के द्वारा स्थापित शांति निकेतन वृक्षों के नीचे खुले में व्यवहारिक शिक्षा देनेवाला पहला स्कूल बना. जब शांति निकेतन की स्थापना हुई, तब उनके मन में यह इच्छा थी कि यहां का माहौल ऐसा होना चाहिए, जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी के बीच कोई दीवार न हो. उम्र और पद को भूल कर सब एक साथ मिल कर काम कर सकें. जहां शिक्षा का मतलब किताबों में सिमटना कहीं से भी न हो. व्यवहारिक शिक्षा के प्रति रवींद्रनाथ टैगोर के इस लगाव को देखते हुए ही महात्मा गांधी ने उन्हें ‘गुरुदेव’ की उपाधि दी थी.
अध्यापन की वजह से ही कहलाये आचार्य कृपलानी
जीवतराम भगवानदास कृपलानी (जेबी कृपलानी) को आचार्य कृपलानी के नाम से भी जाना जाता है. वह एक स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक शिक्षक भी थे. स्वतंत्रता आंदोलन में पूरी तरह से शामिल होने से पहले वर्ष 1912 से 1927 तक उन्होंने विभिन्न स्थानों पर अध्यापन का कार्य किया. पहली बार कृपलानी मुजफ्फरपुर में प्रोफेसर बने. इसके बाद वर्ष 1917 में गांधीजी प्रभावित होकर वे खुद भी स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने लगे, कहा जाता है कि उस समय बंगाल से भागकर आये क्रांतिकारियों को सुरक्षित स्थान मुहैया कराने से लेकर आर्थिक मदद तक की बंदोबस्त कराने में वे आगे रहते थे. वे अपनी 175 रुपये के वेतन में से 30 रुपया रखकर बाकी राष्ट्रीय हितों के लिए खर्च कर देते थे. साथ में शिक्षण का काम जारी रखा. वर्ष 1922 के आसपास जब वे महात्मा गांधी द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ में अध्यापन कर रहे थे, उसी दौरान उन्हें ‘आचार्य’ उपनाम प्राप्त हुआ. आचार्य कृपलानी ने असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया.
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