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डॉक्टर हड़ताल का विकल्प तलाशें

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चिकित्सक को धरती का भगवान कहा जाता है, तो इसके पीछे ठोस वजह है. उनकी दवाओं से मरीजों की पीड़ा खत्म या कम होती है और उनके इलाज से मरीजों को नया जीवन मिलता है. इस पेशे की यही खासियत उसे दूसरों से न केवल अलग करती है, बल्कि इसे गरिमा और गंभीर स्वरूप प्रदान करती है.
लेकिन, हाल के दिनों में इस पेशे से जुड़ी जो खबरें आ रही हैं, वो चिंता पैदा करने वाली हैं. अपनी मांगों पर जोर देने के लिए हड़ताल या मरीजों की उपेक्षा जैसी प्रवृत्ति गहरे रूप में घर कर रही है. रविवार को पीएमसीएच में एक मरीज के परिजन के साथ झड़प के बाद जूनियर डॉक्टर अचानक हड़ताल पर चले गये. मान-मनौवल के बाद वे डय़ूटी पर वापस तो आ गये, लेकिन दस घंटे की हड़ताल में अस्पताल में भरती मरीज जिन दुखद हालात से गुजरे होंगे, उसकी जिम्मेवारी कौन लेगा? पूर्व के कई दृष्टांत रहे हैं, जब छोटी-मोटी बात पर मेडिकल इमरजेंसी को अचानक ठप कर देने से मरीजों की जान चली गयी. शनिवार को टाटा इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल स्टडीज के एक शिक्षक के साथ जो कटु अनुभव हुआ, वह भी चिकित्सकीय पेशे पर सवाल खड़ा करता है.
उक्त शिक्षक को इस आशंका के आधार पर चिकित्सकों ने छूने से परहेज किया कि उन्हें स्वाइन फ्लू है. वे इलाज के लिए पीएमसीएच से आरएमआइ (पटना सिटी) तक भागते-फिरते रहे. उधर, जिलों में तैनात 1995 अनुबंध चिकित्सक ऐसे वक्त में आंदोलन पर हैं, जब बिहार में स्वाइन फ्लू का प्रकोप फैल रहा है. वे अपनी सेवा का स्थायीकरण चाहते हैं. उनकी हड़ताल से यकीनन जिला, अनुमंडल और स्वास्थ्य केंद्रों पर इलाज के लिए आने वाले गरीब तबके के मरीजों को परेशानी हो रही है. ऐसे वाकयों से चिकित्सकीय पेशे के प्रति सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है.
इस सवाल पर तो चिकित्सा पेशे से जुड़े संघों को ही गौर करना होगा कि क्या मरीजों के इलाज की कीमत पर हड़ताल ही एकमात्र और अंतिम अस्त्र है? क्या इसका कोई अन्य विकल्प नहीं हो सकता है, जिसमें मरीजों का इलाज तो बाधित न हो. यदि वे ऐसा कर सकें, तो शायद आम जनता की सहानुभूति भी उनके साथ होगी. उन्हें समझना होगा कि उनका गरिमामय पेशा सामान्य नौकरी से अलहदा है.
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