उषाकिरण खान हिंदी साहित्य के क्षेत्र में बड़ा नाम हैं. उषा किरण मूलत: बिहार के दरभंगा जिले के लहेरिया सराय की रहनेवाली हैं. इनकी स्कूली शिक्षा दरभंगा से हुई है, इन्होंने पटना यूनिवर्सिटी से एमए किया है. अभी यह पटना में ही रहती हैं. इन्होंने हिंदी और मैथिली में लेखन कार्य किया है जो अनवरत जारी है. इन्हें बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का हिंदी सेवी सम्मान, बिहार राजभाषा विभाग का महादेवी वर्मा सम्मान, दिनकर राष्ट्रीय सम्मान और साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कार भी मिले हैं. संप्रति लेखन में संलग्न हैं:- पढ़िए इनकी एक चर्चित कहानी, जिसे हमने किताब घर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 10 प्रतिनिधि कहानियों से साभार लिया है.
कितने वर्षों के बाद केतकी अपने गांव की दहलीज पर आ रही थी. यह अवसर बड़ी मुश्किल से मिला था. चार भाइयों की डेउढ़ी में अकेली लड़की केतकी अपनी भतीजियों-भतीजों की हमउम्र थी. पिता के दो विवाह हुए थे. पहली पत्नी से मात्रा चार लड़के थे, दूसरी से केतकी. केतकी माता और पिता के लिए राहु बनकर अवतरित हुई थी. पिता का स्वर्गवास तभी हो गया था जब केतकी गर्भ में थी और किशोरी माता के संबंध में सुनने में आता है कि विवाह होने के बाद वे केतकी को जन्म लेने देने के लिए ही मात्रा जीवित थीं. बड़ी भाभी ने केतकी को अपनी बेटी की तरह पाला था. पालन-पोषण में कोई त्रुटि नहीं आने दी थी. पंद्रह वर्ष की केतकी ब्याहकर ससुराल चली गई थी. उसके श्वसुर महानगर में रहते थे. गांव-घर से कोई मतलब ही नहीं था. केतकी भी वहीं चली गई थी. गांव के एक-एक पंछी से बिछुड़ते केतकी का हृदय फटता था, किंतु नये वातावरण का आकर्षण उसे जीवित रखे था.
केतकी उन्हें देखती ही रह जाती. और यह सबुजनी कितनी सुंदर थी. गांव की बेटी थी, गांव में ही बस गई थी. सो वह घर-घर मुंह उघारकर घूमती रहती थी. गहरे काले बाल, नीले-हरे-बैंगनी मारकीन के चूने लिखे चूनर, गोरे मुखड़े पर लाल कान और कान में ऊपरी छोर से क्रम से लटकती पांच-पांच बालियां चांदी की. छम-छम करते गहने जौसन-बाजू तक और रुपैया का छड़ा जहां बैठती झन-झन बजता. सबुजनी की बड़ी पूछ बड़े घरों में थी. वह सींकी की रंग-बिरंगी सुंदर-सुंदर डलिया बनाती थी. उससे सीखने वालों का तांता लगा रहता. सबुजनी की दो बेटियां फूल और सत्तो ब्याहकर ससुराल जाने-आने लगी थीं और बेटा रहीम कुदाल कंधों पर रखने लगा था. उसी से केतकी सींकी का बाला-झुमका बनवाकर पहनती थी और फिर तोड़कर फेंक देती थी. सबुजनी लाड़ भरी झिड़की देकर फिर रंगी सींकी से केतकी के लिए कंगना बनाने लगती थी. केतकी को सबुजनी का जोर से ‘कतिकी..ई़़…ई़़’ पुकारना याद आता है. उसे याद आता है कैसे इस्लाम धर्म मानते हुए भी सबुजनी जीतिया और छठ करती थी. छठ की डलिया में सिर्फ फल-फूल देखकर एक बार केतकी ने टोका तो उसने कहा था, मैं मुसलमान हूं न, मेरे हाथ का पकाया हुआ भोजन सूर्य देवता कैसे पाएंगे, इसलिए फल-फूल लेकर अर्घ्य चढ़ाती हूं.
उससे असीमित आवश्यकताएं कहां पूरी पड़ती हैं. केतकी के ही एक भाई चीफ इंजीनियर हैं, दूसरे डॉक्टर और बाकी दो बड़े ठेकेदार. सबकी कोठियां राजाधानी में बनी हैं. बच्चों की शादियां भी वैसी ही हुई हैं और केतकी के पति भी तो उतनी बड़ी संस्था के विज्ञापन मैनेजर हैं. मोटी तनख्वाह, गाड़ी, महानगर में अपना मकान. मैट्रिक पास केतकी ने महानगर में ही रहकर एम़ए़, पी-एच़डी़ कर ली. देश-विदेश घूमने से ही फुरसत नहीं मिलती. छुई-मुई सी केतकी फूल की तरह कोमल अब गदराकर भव्य महिला हो गई है. गांव जाना है, यह सुनकर ही उतावली हो आई थी केतकी. अपने वार्डरोव में देखा एक भी सूती प्रिंट या तांत की साड़ी नहीं थी. यहां सिंथेटिक के सिवा कोई सूती पहनता भी नहीं. महरी भी सूती साड़ियां धोना नहीं जानती. हाउस-कोट तक केतकी के पास इंपोर्टेड थे.
पति के ऑफिस जाने के बाद सीधी वह राजस्थान इंपोरियम चली गई और कुछ सूती रंग-बिरंगी चूनरें खरीद लाई. बड़े स्टील के तह वाले बक्से के नीचे रखी हुई थी उसकी वह पीली विष्णुपुरी साड़ी. उसे निकालकर बहुत देर तक हाथ फेरती रही उस पर. लगा, कैशोर्य के कोमल सपनों को सहला रही है. इसे ही जनेऊ के दिन पहनेगी केतकी. आलता-बिछुआ और लौंग पहनकर कैसी लगेगी इस विष्णुपुरी साड़ी में. कल्पना में देर तक डूबी रही थी केतकी. उसे बहुत धुंधली याद है, छोटे चाचा का गौना था, बहू आने वाली थी. घर-आंगन लग रहा था जैसे खिल-खिल हंस रहा हो. कोठरियां और चौबारे, दालान और खलिहान सब गोबर से लिपा-पुता था. कोहबर में बारादरी में बैठे वर-कनिया, पुरइन के धड़, बांसवन, केले के थंब, नाग-नागिन के जोड़े तथा शुक-शुकी के रूप में विध्यं-विधाता, चावल के घर और लाल-हरे सुग्गे चटख रंगों से लिखे गए थे. नीचे फर्श पर भी अइपन में चटाई लिखी हुई थी.
चारों कोनों पर केले और बांस की सच्ची टहनियां गड़ी हुई थीं. मोथी की सच्ची चटाई कोहबर में बिछी हुई थी. कोहबर से लेकर चौबारे तक अष्टदल और सीताराम के पदचिह्नों का अइपन था. और कर्णपुर वाली नाउन कटोरी में रंग घोलकर सभी कनियों बहुआसिनों का पैर रंग रही थी. महानगर में यह सब कहां? केतकी की अपनी ननद का ब्याह हुआ था तो नैना-जोगिन बड़े कागज के पन्ने पर लिख गया था, सैलो टैप से वाल पेपर के ऊपर चिपका दिया गया था, अभी भी उसे हंसी आती है कैसे मिसेज चावला और बचानी ने कहा था कि यह डिजाइन तो बेहद मॉडर्न है, दो-एक उन्हें भी लिवाएं. केतकी को सचमुच बड़ी हंसी आती है कैसे उनके ग्रामीण संस्कार का वह अविभाज्य अंग, वह अइपन और पुरहर अब कोहबर से उठकर ड्राइंगरूम तक चला गया है. नहीं, गलत सोचती है केतकी. वह तो विश्वप्रसिद्ध हो गया है. मिट्टी के हाथी पर रखी गौरी की पूजा करती हुई केतकी की ननद का झुंझलाया हुआ चेहरा याद आता है जब उसकी एक विदेशी मित्रा ने उससे कहा था कि कितना सुंदर टेराकोटा आर्ट है. यह सब देखकर केतकी मुस्कुराने के सिवा और कुछ नहीं कर पाती.
रात और धुंध के कारण और अधिक कुछ न देख सकी. चचेरे भाई ने पहले मकान का कोने वाला कमरा स्वयं खोला और केतकी का सामान रख दिया. तुम लोग सो जाओ, सुबह सबसे मुलाकात होगी,कहकर चला गया. केतकी ठगी सी रह गई. गौने के बाद यह दूसरी बार गांव आई हूं. गांव में इतना परिवर्तन. बड़ा चचेरा भाई स्वयं कमरा खोलकर बहन और जीजा जी को सो जाने को कह रहा था, बेटी के आने पर प्रतीक्षारत बैठे कहां गए स्वजन-पुरजन, कहां है जुड़ाने को रखा हुआ बड़ी-भात और कहां गई वह परंपरा जिसमें पहले देवी की विनती किए बिना किसी घर में पैर नहीं रखा जा सकता था. पथराई-सी खड़ी केतकी पति के टोकने पर सामान्य हुई. कई दिनों-रातों का जागरण और मकड़ी की तरह स्वयं के सत्व द्वारा बुने जाते तारों का खंडित दंश केतकी को बेहद थका गया था. वह जो सोई सो काफी दिन उठ आने के बाद जग सकी. जल्दी-जल्दी कमरे के अटैच्ड बाथरूम में स्नान कर बाहर निकली. वाह, साले लोगों ने तो मकान बड़ा कंपफर्टेबल बना लिया है. इसमें तो रवि-हनी भी आकर रह सकता है. पति ने प्रशंसात्मक नजरों से चारों ओर देखते हुए कहा.
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