#HappyDeepavali : पढ़ें कुछ प्रसिद्ध कविताएं

मेरे दीपक... मधुर मधुर मेरे दीपक जल! युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल; प्रियतम का पथ आलोकित कर! सौरभ फैला विपुल धूप बन; मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन; दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित, तेरे जीवन का अणु गल-गल! पुलक-पुलक मेरे दीपक जल! सारे शीतल कोमल नूतन, माँग रहे तुझको ज्वाला-कण; विश्वशलभ सिर धुन कहता "मैं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 6, 2018 5:38 PM
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मेरे दीपक

मधुर मधुर मेरे दीपक जल!

युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल;

प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन;

मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन;

दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,

तेरे जीवन का अणु गल-गल!

पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,

माँग रहे तुझको ज्वाला-कण;

विश्वशलभ सिर धुन कहता "मैं

हाय न जल पाया तुझमें मिल"!

सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक;

स्नेहहीन नित कितने दीपक;

जलमय सागर का उर जलता;

विद्युत ले घिरता है बादल!

विहंस-विहंस मेरे दीपक जल!

द्रुम के अंग हरित कोमलतम,

ज्वाला को करते हृदयंगम;

वसुधा के जड़ अंतर में भी,

बन्दी नहीं है तापों की हलचल!

बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!

मेरे निश्वासों से द्रुततर,

सुभग न तू बुझने का भय कर;

मैं अंचल की ओट किये हूँ,

अपनी मृदु पलकों से चंचल!

सहज-सहज मेरे दीपक जल!

सीमा ही लघुता का बन्धन,

है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन;

मैं दृग के अक्षय कोशों से –

तुझमें भरती हूँ आँसू-जल!

सजल-सजल मेरे दीपक जल!

तम असीम तेरा प्रकाश चिर;

खेलेंगे नव खेल निरन्तर;

तम के अणु-अणु में विद्युत सा –

अमिट चित्र अंकित करता चल!

सरल-सरल मेरे दीपक जल!

तू जल जल होता जितना क्षय;

वह समीप आता छलनामय;

मधुर मिलन में मिट जाना तू –

उसकी उज्जवल स्मित में घुल-खिल!

मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!

प्रियतम का पथ आलोकित कर!

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मृत्तिका का दीप तब तक जलेगा अनिमेष

एक भी कण स्नेह का जब तक रहेगा शेष।

हाय जी भर देख लेने दो मुझे

मत आँख मीचो

और उकसाते रहो बाती

न अपने हाथ खींचो

प्रात जीवन का दिखा दो

फिर मुझे चाहे बुझा दो

यों अंधेरे में न छीनो-

हाय जीवन-ज्योति के कुछ क्षीण कण अवशेष।

तोड़ते हो क्यों भला

जर्जर रूई का जीर्ण धागा

भूल कर भी तो कभी

मैंने न कुछ वरदान माँगा

स्नेह की बूँदें चुवाओ

जी करे जितना जलाओ

हाथ उर पर धर बताओ

क्या मिलेगा देख मेरा धूम्र कालिख वेश।

शांति, शीतलता, अपरिचित

जलन में ही जन्म पाया

स्नेह आँचल के सहारे

ही तुम्हारे द्वार आया

और फिर भी मूक हो तुम

यदि यही तो फूँक दो तुम

फिर किसे निर्वाण का भय

जब अमर ही हो चुकेगा जलन का संदेश।

कवि का दीपक
आज देश के ऊपर कैसी

काली रातें आई हैं!

मातम की घनघोर घटाएँ

कैसी जमकर छाई हैं!

लेकिन दृढ़ विश्वास मुझे है

वह भी रातें आएँगी,

जब यह भारतभूमि हमारी

दीपावली मनाएगी!

शत-शत दीप इकट्ठे होंगे

अपनी-अपनी चमक लिए,

अपने-अपने त्याग, तपस्या,

श्रम, संयम की दमक लिए।

अपनी ज्वाला प्रभा परीक्षित

सब दीपक दिखलाएँगे,

सब अपनी प्रतिभा पर पुलकित

लौ को उच्च उठाएँगे।

तब, सब मेरे आस-पास की

दुनिया के सो जाने पर,

भय, आशा, अभिलाषा रंजित

स्वप्नों में खो जाने पर,

जो मेरे पढ़ने-लिखने के

कमरे में जलता दीपक,

उसको होना नहीं पड़ेगा

लज्जित, लांच्छित, नतमस्तक।

क्योंकि इसीके उजियाले में

बैठ लिखे हैं मैंने गान,

जिनको सुख-दुख में गाएगी

भारत की भावी संतान!

-हरिवंशराय बच्चन

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