लालू-नीतीश फ्रेंडशिप: CM की कुर्सी तक लालू को पहुंचाने वाले नीतीश, आज सियासी दुश्मन क्यों बन गए? पढ़िए पूरी कहानी

Lalu-Nitish Friendship: बिहार की राजनीति में आज एक-दूसरे के विरोधी माने जाने वाले लालू यादव और नीतीश कुमार कभी बेहद करीबी दोस्त हुआ करते थे. 1990 में जब लालू मुख्यमंत्री बने, तो इसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका नीतीश कुमार की मानी जाती है. लेकिन वक्त बदला, रिश्ते बदले और दोस्ती सियासी दुश्मनी में तब्दील हो गई. आइए जानते हैं इस दिलचस्प राजनीतिक रिश्ते की पूरी कहानी.

By Abhinandan Pandey | June 11, 2025 9:10 AM
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Lalu-Nitish Friendship: बिहार की राजनीति में आज नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव को एक-दूसरे का धुर विरोधी माना जाता है. लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि ये दोनों नेता कभी बेहद करीबी दोस्त हुआ करते थे. आज जिस राजनीति में दोनों आमने-सामने हैं, उसी राजनीति में कभी नीतीश ने लालू को उस मुकाम तक पहुंचाया था, जहां से लालू ने पूरे बिहार पर अपनी सियासी पकड़ कायम की.

1990: जब नीतीश ने बनाया लालू को मुख्यमंत्री

बात 1990 की है, जब बिहार की राजनीति करवट ले रही थी. कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद नेता प्रतिपक्ष का पद खाली था और इस पद को पाने वाला ही अगला मुख्यमंत्री बन सकता था. लालू यादव उस समय उभरते नेता थे, लेकिन उनके पास पर्याप्त समर्थन नहीं था. नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए 42 विधायकों की जरूरत थी और लालू के पास गिनती के भी समर्थक नहीं थे.

इस मुश्किल घड़ी में लालू के लिए मोर्चा संभाला नीतीश कुमार और शरद यादव ने. शरद ने दिल्ली से पटना पहुंचकर मिशन “लालू को सीएम” शुरू किया और इसकी ज़िम्मेदारी दी नीतीश कुमार और जगदानंद सिंह को. दोनों नेताओं ने दिन-रात एक कर विधायकों से संपर्क साधा और उन्हें लालू के पक्ष में करने की मुहिम में लग गए.

नीतीश की रणनीति: घर-घर जाकर विधायक मनाए

नीतीश कुमार खुद लालू यादव को साथ लेकर पैदल ही विधायकों के पास पहुंचते. कई बार विधायक क्लब और फ्लैट में जाकर सुबह से शाम तक विधायकों को मनाने की कोशिश करते. वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर अपनी किताब बंधु बिहारी में लिखते हैं कि अगर उस वक्त नीतीश और शरद की जोड़ी न होती, तो शायद लालू मुख्यमंत्री नहीं बन पाते. इस रणनीति और नीतीश की मेहनत का नतीजा यह रहा कि लालू नेता प्रतिपक्ष बने और फिर बाद में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए.

शुरुआती दौर की दोस्ती और समर्थन

लालू और नीतीश की जोड़ी को तब “नए बिहार” की उम्मीद माना गया था. दोनों पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधि थे और मंडल राजनीति के उभार के समय इनकी पकड़ काफी मजबूत हो चुकी थी. लालू जनता के बीच अपनी बोलचाल और हावभाव से लोकप्रिय हो रहे थे, तो नीतीश विकास की बात करने वाले शांत और गंभीर नेता के रूप में पहचान बना रहे थे. लालू जब मुख्यमंत्री बने तो नीतीश उनके सबसे भरोसेमंद सलाहकारों में शामिल थे. लेकिन सत्ता के गलियारों में समय के साथ समीकरण बदलने लगे.

1991 के बाद शुरू हुआ फासला

1991 के लोकसभा चुनावों में लालू यादव ने मंडल की राजनीति के सहारे बड़ी सफलता हासिल की. वे खुद को पिछड़े वर्गों के सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित करने लगे. इसके बाद उनकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ीं और वे अपने सहयोगियों की बात कम सुनने लगे. नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेता लालू की कुछ नीतियों और कार्यशैली से असहमत होने लगे. यह असहमति धीरे-धीरे दूरी में बदल गई. जब लालू ने उनके सुझावों को नजरअंदाज करना शुरू किया, तो नीतीश ने अलग राह पकड़ने की ठान ली.

1994: समता पार्टी का गठन और अलग राह

1994 में गांधी मैदान में हुई एक बड़ी ‘कुर्मी रैली’ ने नीतीश कुमार को नई दिशा दी. इस रैली में जब नीतीश ने भारी भीड़ देखी तो उनके भीतर खुद मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जागी. और ठीक एक साल बाद नीतीश ने लालू का साथ छोड़ ‘समता पार्टी’ का गठन कर लिया. यहीं से दोनों नेताओं की राहें पूरी तरह अलग हो गईं.

क्या कहता है सियासी गलियारा

बिहार के कई वरिष्ठ नेता मानते हैं कि 1990 में लालू को मुख्यमंत्री बनाने में नीतीश कुमार की भूमिका सबसे अहम थी. अगर लालू ने शरद और नीतीश की बातों को नजरअंदाज नहीं किया होता, तो शायद आज भी यह सियासी दोस्ती कायम रहती.

दोस्ती से दुश्मनी तक का सफर

आज भले ही नीतीश और लालू एक-दूसरे के विरोधी खेमे में नजर आते हों, लेकिन बिहार की राजनीति की यह एक अनोखी कहानी है- जहां एक दोस्त ने दूसरे को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन वक्त के साथ वही दोस्त सियासी दुश्मन बन गया. यह कहानी सिर्फ बिहार की राजनीति की नहीं, बल्कि उस बदलती सोच और सत्ता की सच्चाई की है, जो कभी भी रिश्तों की दिशा बदल सकती है.

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