रांची. अंडमान द्वीप समूह के आइटीएफ मैदान में लगे पुस्तक मेला में पहली बार झारखंड की पुस्तकों का भी स्टॉल लगा है. यहां पूर्व में बांग्ला, तमिल तेलुगु एसोसिएशन द्वारा पुस्तक मेला छोटे पैमाने पर लगाया जा चुका है. पर पहली बार नेशनल बुक ट्रस्ट के सहयोग से अंडमान-निकोबार सरकार की संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित इस पुस्तक मेला में 50 से ज्यादा प्रकाशकों के स्टॉल लगे हैं. इनमें केलुंङ बुक्स आदिवासी फर्स्ट नेशंस अखड़ा के नाम से झारखंडी पुस्तकों का भी स्टॉल लगा है. साहित्यकार वंदना टेटे ने बताया कि अंडमान के रांची कम्युनिटी के बीच अपनी मिट्टी को जानने-समझने के लिए यहां की पुस्तकों को लेकर काफी रुझान दिख रहा है. वे वहां पर एकमात्र आदिवासी पब्लिशर के रूप में वहां उपस्थित हैं. उन्होंने कहा कि स्टॉल में लगे मड़वा/माड़ी पत्ते से सहज ही हमारी पहचान ””आदिवासी”” बन गयी है. झारखंड में हम सखुआ पत्ते का उपयोग अपने हर सामाजिक-सांस्कृतिक अवसरों पर करते हैं. यहां पर मड़वा के पत्ते का इस्तेमाल किया जा है. स्टॉल लगाने में खड़िया डोकलो, मुंडा सभा का विशेष सहयोग रहा है. झारखंड की जिन पुस्तकों में लोगों की विशेष रूचि है, उनमें उरांव पुरखा खीरी मो-ड़ा, खड़िया लोक कथाओं का सांस्कृतिक सामाजिक अध्ययन, जयपाल सिंह मुंडा की जीवनी, भाषा सीखने की किताबें, पुरखा गीत संकलन, आदिवासी दर्शन कथाएं, उलगुलानी बिरसा आदि शामिल हैं. रविवार को अश्विनी पंकज की पुस्तक आधुनिक अंडमान के निर्माता : रांचीवाला का भी लोकार्पण किया गया. इस पुस्तक में लेखक बताते हैं कि अंडमान-निकोबार का इतिहास जब भी लिखा गया, तब आधी सदी पहले तक मजदूरी में व्यस्त उन हाथों को भुला दिया गया है, जिनके पास कलम नहीं था. उनके पास सिर्फ फावड़ा, कुल्हाड़ी और एक सपना था. वे झारखंड के लोग थे. 1970 में एक मानवशास्त्री ने इनके योगदान को रेखांकित करते हुए इन्हें आधुनिक अंडमान का निर्माता कहा था. यह पुस्तक अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के आधुनिक विकास में रांची कम्युनिटी के योगदान की एक सजीव गाथा है. उन आदिवासी प्रवासियों की जो जंगलों को बसाहटों में, पगडंडियों को सड़कों में और अजनबी जमीन को रहने लायक जमीन में बदलते चले गये.
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