आदिवासी नायक जयपाल सिंह मुंडा : ऑक्सफोर्ड के स्कॉलर और भारत के संविधान निर्माता, जिन्होंने बदल दिया इतिहास

Jaipal Singh Munda News: भारत की 140 करोड़ की आबादी में ओलंपिक्स में एक गोल्ड मेडल पाना बड़ी उपलब्धि मानी जाती है. हालांकि भारत ने अपना पहला सोना आज से 97 साल पहले जीता था. उस समय यह अद्भुत उपलब्धि हासिल करने वाले खिलाड़ी थे- जयपाल सिंह मुंडा. उनकी उपलब्धियों में सबसे पहला आदिवासी, जिसने इंग्लैंड के प्रतिष्ठित ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से भी पढ़ाई की. इतना ही नहीं वे भारत के संविधान सभा के भी सदस्य थे. विशेष आलेख में जानिए भारतीय आदिवासी समाज की इस अद्भुत शख्सियत के बारे में.

By Anant Narayan Shukla | March 19, 2025 10:41 PM
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Jaipal Singh Munda News: भारत में ओलंपिक में गोल्ड को बहुत ज्यादा सम्मान दिया जाता है. नीरज चोपड़ा ने 2020 के टोक्यो ओलंपिक में गोल्ड जीता तो आजतक लोगों की जुबान पर है. लेकिन भारत को पहला गोल्ड दिलाने वाले उस महान खिलाड़ी के बारे में शायद ही कोई सुनना चाहता हो. जयपाल सिंह ने हॉकी में भारत को पहला पीला तमगा दिलाया था, लेकिन वह महान शख्सियत केवल इतना ही नहीं था. भारतीय संविधान निर्माण में जिन प्रमुख नेताओं की भूमिका रही, उनमें जयपाल सिंह मुंडा का विशेष स्थान है. जिस तरह डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलितों के उत्थान के लिए कार्य किया, ठीक उसी प्रकार जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों के हक और अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया. 

जयपाल सिंह मुंडा असाधारण प्रतिभा के धनी और अपार ऊर्जा से भरपूर व्यक्ति थे. वे अपनी मातृभाषा मुंडारी के साथ-साथ अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, इटालियन, हिंदी और नागपुरी भाषाओं में भी निपुण थे. जयपाल सिंह एकमात्र अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी थे जिन्हें प्रतिष्ठित “ऑक्सफोर्ड ब्लू” का खिताब प्राप्त हुआ. उनके नेतृत्व में भारतीय हॉकी टीम ने 1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक में अपना पहला स्वर्ण पदक जीता था. वे पहले आदिवासी व्यक्ति थे, जिन्होंने भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में स्थान प्राप्त किया. एक उत्कृष्ट नेता, प्रभावी वक्ता, संगठक, राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, शिक्षाविद और कुशल प्रशासक के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई. वे भारतीय संविधान सभा के भी सदस्य थे. इस लेख में हम उनके इन्हीं उपलब्धियों के बारे में क्रमवार चर्चा करेंगे.  

जयपाल सिंह मुंडा के बारे में जानना क्यों जरूरी है?

बहुआयामी प्रतिभा के बावजूद भारतीय इतिहास और राजनीति में जयपाल सिंह मुंडा को वह स्थान नहीं मिल सका, जिसके वे वास्तविक हकदार थे. हालांकि, आदिवासी समुदाय उन्हें “मरंग गोमके” (सर्वोच्च नेता) के रूप में सम्मान देता है. उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कई मुंडारी लोकगीतों में उन्हें बिरसा मुंडा के उलगुलान (क्रांति) की विरासत के रूप में देखा गया. नागपुरी के कवि अर्जुन भगत ने 1942 में उन पर एक कविता लिखी, जिसकी पंक्ति थी- “धन्य विधि के विचारे, दुनिया हरे जयपाल सिंह चरण पधारे.” हालांकि, दंतकथाओं में कल्पना का पुट होता है और ऐतिहासिक तथ्यों की कमी हो सकती है, फिर भी ये किसी नायक की लोकप्रियता को दर्शाने का एक महत्वपूर्ण संकेत होती हैं.

उस दौर की मुख्यधारा की मीडिया और समाज ने उन्हें उतना महत्व नहीं दिया. रांची के इकलौते नियमित समाचार पत्र ‘द सेंटिनल’ ने उनके खिलाफ व्यंग्यात्मक शैली में एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था- “अनादर बिरसा भगवान बट फ्रॉम ऑक्सफोर्ड” यह स्पष्ट करता है कि मुख्यधारा का समाज आदिवासियों को शिक्षित और आधुनिक रूप में देखने के लिए तैयार नहीं था. वे चाहते थे कि आदिवासी उसी पारंपरिक छवि में रहें, जिन्हें वे सदियों से देखने के आदी थे-नंग-धड़ंग, अशिक्षित और पिछड़े हुए.

देश की आजादी के बाद भी यह मानसिकता नहीं बदली. 1952 के पहले लोकसभा चुनाव के दौरान मुख्यधारा के समाज में जयपाल सिंह मुंडा के बारे में बेहद अधूरी जानकारी थी. इसका प्रमाण तब मिला जब जवाहरलाल नेहरू के छोटानागपुर क्षेत्र में चुनाव प्रचार के दौरान एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबार ने उन्हें ‘राजपूत नेता’ घोषित कर दिया, केवल इसलिए कि उनके नाम में ‘सिंह’ शब्द था. यह जरूरी है कि आदिवासियों के इतिहास, संस्कृति और नायकों को पूर्व धारणाओं से मुक्त होकर समझा जाए. इस संदर्भ में जयपाल सिंह मुंडा एक ऐसे महानायक हैं, जिन्हें न केवल आदिवासी समुदाय बल्कि पूरे देश को जानने और समझने की जरूरत है.

ऑक्सफोर्ड में तीन विषयों से ग्रेजुएट हुए जयपाल सिंह मुंडा

जयपाल सिंह का जन्म 3 जनवरी 1903 को वर्तमान झारखंड के खूंटी जिले के टकरा पाहनटोली में हुआ था. वे मुण्डा जनजाति से ताल्लुक रखते थे. उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके पैतृक गांव में हुई, जिसके बाद वे मिशनरियों के संपर्क में आए और रांची के सेंट पॉल स्कूल में दाखिला लिया. उनकी बुद्धिमत्ता और प्रतिभा को देखते हुए स्कूल के प्रधानाचार्य रेवरेंड कैनन कॉसग्रेव ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजने का निर्णय लिया.

1920 में जयपाल सिंह को कैंटरबरी के सेंट ऑगस्टाइन कॉलेज में प्रवेश मिला. इसके बाद, 1922 में उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के सेंट जॉन कॉलेज में अध्ययन का अवसर मिला. ऑक्सफोर्ड में रहते हुए, उन्होंने अकादमिक और खेल दोनों क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया. वे हॉकी के एक कुशल खिलाड़ी बने और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की हॉकी टीम का हिस्सा बने. वे पहले भारतीय थे, जिन्हें हॉकी में ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का सम्मान प्राप्त हुआ.

इसके अलावा, उन्होंने एशियाई छात्रों के लिए ‘ऑक्सफोर्ड हर्मिट्स’ नामक एक खेल समाज की स्थापना की और कॉलेज की डिबेटिंग सोसाइटी के अध्यक्ष भी बने. 1926 में, उन्होंने दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र में स्नातक की डिग्री प्राप्त की. ऑक्सफोर्ड की शिक्षा उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट साबित हुई और आगे चलकर वे एक कुशल खिलाड़ी, शिक्षाविद् और राजनेता के रूप में उभरे.

जयपाल सिंह मुंडा और हॉकी

जयपाल सिंह न केवल एक कुशल खिलाड़ी थे, बल्कि हॉकी के प्रति उनकी गहरी रुचि और समर्पण भी उल्लेखनीय था. उनकी उत्कृष्ट खेल प्रतिभा को देखते हुए उन्हें विंबलडन हॉकी क्लब और ऑक्सफोर्डशायर हॉकी एसोसिएशन का सदस्य बनाया गया. इसके बाद, उन्होंने भारतीय छात्रों को संगठित कर एक नई हॉकी टीम का गठन किया. 1923 से 1928 के बीच उन्होंने बेल्जियम, फ्रांस, स्पेन और जर्मनी के विश्वविद्यालयों में अपनी असाधारण हॉकी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई.

1928 में उनकी कप्तानी में ही नीदरलैंड के एम्सटर्डम ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का नेतृत्व किया और देश का पहला ओलंपिक स्वर्ण पदक दिलवाया. लेकिन इसके तुरंत बाद ही अंग्रेज सरकार ने उनके प्रोबेशन की अवधि 1 साल के लिए और बढ़ा दी. स्वयं जयपाल सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि जब वे ओलंपिक खेलकर ऑक्सफोर्ड लौटे, तो उन्हें बताया गया कि बिना अनुमति अनुपस्थित रहने के कारण उनकी आई.सी.एस. प्रोबेशन अवधि एक वर्ष के लिए बढ़ा दी गई. 

ब्रिटिश सरकार के लिए भारतीय टीम के विश्वविजेता कप्तान होने का कोई महत्त्व नहीं था. लेकिन मुंडा के लिए यह बहुत बड़ी बात थी. उन्होंने इसके विरोध में उन्होंने आई.सी.एस. की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ दी. जयपाल सिंह ने स्वयं इस बात का जिक्र किया है, “मुझे आईसीएस और हॉकी, इनमें से किसी एक चुनना था. मैंने अपने दिल की आवाज सुनी. हॉकी मेरे खून में था. मैंने फैसला किया– हॉकी.” इस प्रकार, जयपाल सिंह ने अपने स्वाभिमान और नस्लीय भेदभाव के विरोध में हॉकी को अलविदा कह दिया और अपने आत्मसम्मान को सर्वोपरि रखा.

हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद ने भी अपनी आत्मकथा में जयपाल सिंह का उल्लेख करते हुए लिखा, “वे ऑक्सफोर्ड के एक उत्कृष्ट फुलबैक थे और यूरोप व ब्रिटेन के हॉकी जगत में उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की थी. उनकी शैक्षणिक योग्यता, सामाजिक प्रतिष्ठा और खेल में गहरी समझ के कारण वे भारतीय टीम का नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त थे. हालांकि, नस्लीय भेदभाव के कारण वे अंतिम मैच तक टीम का नेतृत्व नहीं कर सके.” 1948 में प्रसिद्ध पत्रकार एम. एल. कपूर ने भी इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा था कि टीम के एंग्लो-इंडियन सदस्यों ने उनके लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न कीं. जयपाल सिंह अनुशासनप्रिय थे और टीम का नेतृत्व प्रभावी ढंग से करना चाहते थे, लेकिन उनकी इस सख्त नेतृत्व शैली का विरोध हुआ.

जयपाल सिंह मुंडा का सफर : हॉकी में सफलता के बाद

जयपाल सिंह मुंडा ने अपने जीवन में दो शादियां कीं. 1931 में जयपाल सिंह मुंडा का विवाह कांग्रेस के पहले अधिवेशन के अध्यक्ष व्योमकेश चंद्र बनर्जी की नतिनी तारा मजूमदार से हुआ. इस विवाह से उन्हें तीन बच्चे हुए. दो बेटे, वीरेंद्र और जयंत और एक बेटी, जानकी. 1954 में जयपाल सिंह ने श्रीलंका की जहांआरा जयरत्नम से दूसरी शादी की, जिनसे उनके पुत्र रणजीत जयरत्नम हुए. यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि राजनीति में आने का उनका सफर हॉकी से अलग होने के बाद शुरू हुआ. 

इंग्लैंड लौटने के बाद जयपाल सिंह को आईसीएस प्रशिक्षण में पुनः प्रवेश का अवसर मिला, लेकिन उन्होंने इसे त्यागकर बर्मा-शेल (अब रॉयल डच शेल) में वरिष्ठ कार्यकारी के रूप में काम करना शुरू किया. 1928 से 1932 तक उन्होंने इस पद पर कार्य किया और शेल ग्रुप में इस पद पर नियुक्त होने वाले पहले भारतीय बने. यह नौकरी उन्हें कोलकाता ले आई, जहां उन्होंने कुछ समय तक कार्य किया. बाद में, उन्होंने शिक्षा क्षेत्र में कदम रखा और 1932 से 1936 तक ब्रिटेन के गोल्ड कोस्ट कॉलोनी (अब घाना) के आचिमोटो कॉलेज में शिक्षक के रूप में काम किया.

जयपाल सिंह इसके बाद फिर रामपुर के राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल बने. 1938 में, वे बीकानेर के महाराजा के यहां राजस्व और भूमि विकास मंत्री बने. बाद में महाराजा ने उन्हें विदेश मामलों का मंत्री भी नियुक्त किया. हालांकि, के.एम. पणिक्कर ने पंजाब के मुख्यमंत्री सिकंदर हयात खान के माध्यम से इस नियुक्ति का विरोध किया. इसके परिणामस्वरूप, जयपाल सिंह ने बीकानेर महाराजा की नौकरी छोड़ दी और कुछ समय के लिए कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के बेटे कर्ण सिंह के ट्यूटर बन गए. वहां भी उनका मन नहीं लगा और वे अपने घर लौट आए. 

राजनीति के शुरुआती दिन 

जयपाल सिंह मुंडा का राजनीतिक जीवन मुख्य रूप से आदिवासी समुदायों के प्रति भेदभाव और शोषण से प्रेरित था, विशेषकर बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में. 1938 में आदिवासी महासभा की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य संथाल परगना और छोटानागपुर को बिहार से अलग कर एक स्वतंत्र प्रांत के रूप में स्थापित करना था. 1939 में सिंह को महासभा का अध्यक्ष चुना गया और उन्होंने इस आंदोलन का नेतृत्व किया, आदिवासी समुदायों को कांग्रेस सरकार के खिलाफ संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया. इसके अलावा, उन्होंने आदिवासी श्रमिक संघ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य जमशेदपुर के औद्योगिक क्षेत्र में कार्यरत आदिवासी श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करना था. सिंह को आदिवासी संघर्षों के एक प्रमुख नेता के रूप में पहचाना गया और आदिवासियों के बीच उन्हें ‘मारंग गोमके’ यानी ‘महान नेता’ के रूप में सम्मानित किया गया.

1939 में जयपाल सिंह ने आदिवासी महासभा के अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभाला और इसके बाद उन्होंने आदिवासी आंदोलन के लिए अपनी पूरी प्रतिबद्धता दिखाई. 1946 में, खूंटी क्षेत्र से चुनाव जीतकर वे संविधान सभा के सदस्य बने. 1950 में आदिवासी महासभा को राजनीतिक संगठन में बदलते हुए उन्होंने झारखंड पार्टी की स्थापना की, जिससे आदिवासियों की राजनीति में सक्रिय भागीदारी की शुरुआत हुई. उन्होंने भारत में आदिवासी शब्द को सम्मानित किया और अखिल भारतीय स्तर पर आदिवासी समुदायों को संगठित किया. उनके मार्गदर्शन में आदिवासी राजनीति को एक स्पष्ट और संगठित दिशा मिली.

भारतीय संविधान सभा में कुल 299 सदस्य थे. अनुसूचित जनजाति के कुल 33 सदस्यों ने भारत के भविष्य के लिए रची जा रही नियम प्रणाली में भाग लिया और जयपाल सिंह मुंडा उनमें से एक थे. उन्होंने ताउम्र आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी. हालांकि जयपाल सिंह का जीवन ऑक्सफर्ड से प्रभावित था और वे ज्यादातर अंग्रेजी में बात करते थे, लेकिन अपनी आदिवासी पहचान और संस्कृति से वे गहरे जुड़े हुए थे और इनका हमेशा सम्मान करते थे. 

संविधान सभा में आदिवासी हक की आवाज बुलंद की

1947 में जब वंचित वर्गों और अल्पसंख्यकों के लिए अधिकारों की रिपोर्ट जारी की गई, जिसमें सिर्फ दलितों के लिए विशेष प्रावधान थे, तो जयपाल सिंह आदिवासियों के अधिकारों के लिए खड़े हुए. संविधान सभा में उन्होंने एक ऐतिहासिक भाषण में कहा, “इस देश में पिछले छह हजार सालों से अगर किसी का शोषण हुआ है, तो वह आदिवासी हैं.” संविधान सभा में दिए गए अपने तमाम भाषणों में जयपाल सिंह मुंडा ने अंग्रेजों के साथ भारत की अन्य आबादी को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहराया. इसी बात को लेकर कुछ आलोचक उन पर अंग्रेजों के समर्थक होने का आरोप लगाते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि ब्रिटिश सरकार ने नागपुर संथाल परगना में उनकी सबसे अधिक जासूसी कराई थी.

उन्होंने आदिवासी संघर्ष को लेकर एकबार संविधान सभा में कहा था, “हमारी स्थिति का इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि हम हिंदुओं या मुसलमानों से कम हैं या पारसियों से ज्यादा. हमारा दृष्टिकोण यह है कि हमारे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक मानकों में बहुत ज्यादा असमानता है, और केवल कुछ वैधानिक बाध्यता के कारण ही हम सामान्य जनसंख्या स्तर तक पहुँच सकते हैं: मैं आदिवासियों को अल्पसंख्यक नहीं मानता… उनके पास कुछ ऐसे अधिकार हैं जिन्हें कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता. हालाँकि हम उन अधिकारों की माँग नहीं कर रहे हैं. हम चाहते हैं कि हमारे साथ भी दूसरों की तरह व्यवहार किया जाए.” मरंग गोमके ‘आदिवासी नायक’ की इस बात पर संविधान सभा में बहुत देर तक ताली बजी थी. 

आदिवासी मंत्रालय की स्थापना, साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा आदिवासियों के लिए ‘पंचशील’ नीति बनाना, जयपाल सिंह की मेहनत का परिणाम था. हालांकि, ये संवैधानिक प्रावधान उस रूप में लागू नहीं हो सके, जैसा कि जयपाल सिंह चाहते थे. यही कारण है कि पांचवीं और छठी अनुसूची तथा ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल के होते हुए भी आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.

आदिवासियों में जाति व्यवस्था नहीं, तो हमें अनुसूचित जनजाति क्यों कहा जाए?

जयपाल सिंह के प्रयासों के बाद ही संविधान सभा ने आदिवासी समुदाय के लगभग चार सौ समूहों को विधायिका और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया. हालांकि, उन्होंने इस बात का विरोध किया कि आदिवासियों को उनकी पहचान से अलग कर अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाए. उन्होंने अंबेडकर के ‘अनुसूचित जाति’ कहे जाने के विरोधी थे. संविधान सभा की बहस में 9 दिसंबर 1946 को उन्होंने कहा, “अध्यक्ष महोदय, मैं उन लाखों अज्ञात लोगों की ओर से बोलने खड़ा हुआ हूं जो स्वतंत्रता संग्राम के अनजान सेनानी हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं, और जिन्हें बैकबर्ड ट्राइब्स, क्रिमिनल ट्राइब्स और न जाने क्या-क्या कहा जाता है. हम आदिवासियों में जाति व्यवस्था नहीं है, तो हमें अनुसूचित जनजाति क्यों कहा जाए? हमें सिर्फ आदिवासी कहा जाए, हमें अपनी पहचान के साथ कोई समझौता नहीं चाहिए.”

बिहार से अलग होकर अलग जनजातीय राज्य की मांग के लिए उन्होंने सबसे पहले आवाज उठाई थी. 1940 के दशक में इसके लिए उन्होंने सुभाष चंद्र बोस से भी मुलाकात की थी. हालांकि अपने जीते जी वे इस इतिहास को न देख सके जब 15 नवंबर 2000 को उनका बोया हुआ बीज वटवृक्ष बनकर झारखंड राज्य के रूप में सामने आया. सक्रिय हॉकी से संन्यास लेने के बाद वे बंगाल हॉकी संघ के सचिव और लंबे समय तक भारतीय खेल परिषद के सदस्य के रूप में भी सक्रिय रहे. जयपाल सिंह का निधन 20 मार्च 1970 को दिल्ली में हुआ. 

झारखंड सरकार ने उनकी उपलब्धियों को उचित सम्मान देते हुए रांची में बने भव्य खेल परिसर और खेल गांव का नाम ‘जयपाल सिंह मुंडा खेल परिसर’ रखा. इसके साथ ही रांची में बने हॉकी स्टेडियम का नाम भी ‘मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा’ के नाम पर किया गया. उनकी असाधारण उपलब्धियों के लिए समय समय पर लोग उनके लिए भारत रत्न की भी मांग करते हैं, अब यह देखना होगा कि क्या भाारत सरकार उनके लिए इसे स्वीकार करेगी. 

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