Arwal Vidhan Sabha: भाजपा की नजरें अरवल पर टिकीं, 2025 में कठिन चुनौती, जातीय संघर्ष का रहा है इतिहास

Arwal Vidhan Sabha: अरवल, बिहार का एक छोटा लेकिन राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील जिला है. यह जिला नक्सलवाद, जातीय संघर्ष और सामाजिक असमानता की पृष्ठभूमि से निकलकर आज महागठबंधन और एनडीए के बीच सीधी टक्कर का मैदान बन चुका है.

By Paritosh Shahi | July 13, 2025 8:22 PM
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Arwal Vidhan Sabha: बिहार का अरवल एक प्रशासनिक जिला है. इसकी स्थापना अगस्त 2001 में जहानाबाद जिले से अलग होकर की गई थी. यह राज्य के सबसे कम आबादी वाले जिलों में तीसरे स्थान पर आता है. कभी रेड कॉरिडोर का हिस्सा रहे इस क्षेत्र ने सामाजिक और राजनीतिक अशांति के कई भयावह दौर देखे हैं.

इतिहास

भूमि विवादों और जातीय संघर्षों ने अरवल की पहचान को लंबे समय तक प्रभावित किया. 1992 का बारा नरसंहार और 1999 का सेनारी नरसंहार, जिनमें भूमिहार समुदाय के दर्जनों लोग मारे गए. जवाब में, भूमिहारों द्वारा रणवीर सेना नामक सशस्त्र संगठन का गठन किया गया, जिसने 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार जैसी हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया. इन घटनाओं ने अरवल को नक्सल प्रभाव वाले इलाके में प्रसिद्द कर दिया.

सीट का इतिहास

1951 में स्थापित अरवल विधानसभा सीट, जहानाबाद लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है. यहां की राजनीति हमेशा परिवर्तनशील रही है. पिछले चार विधानसभा चुनावों में चार अलग-अलग दलों ने जीत दर्ज की है. सबसे लगातार जीत निर्दलीय कृष्णानंदन प्रसाद सिंह ने 1980 से 1990 तक तीन बार हासिल की. 2020 के विधानसभा चुनाव में, भाकपा (माले) (लिबरेशन) के उम्मीदवार ने भाजपा को लगभग 19950 मतों से हराया. 2024 के लोकसभा चुनाव में भी राजद को अरवल में 15730 वोटों की बढ़त मिली, जिससे स्पष्ट होता है कि एनडीए के लिए यह सीट चुनौतीपूर्ण बनी हुई है.

जातीय समीकरण

इस सीट पर अनुसूचित जाति के मतदाता 21.23% और मुस्लिम मतदाता 9.4% हैं. 2020 में 2.58 लाख पंजीकृत मतदाता थे, जो 2024 तक बढ़कर 2.69 लाख हो गए हैं. अरवल की राजनीति सामाजिक संघर्षों से उभरकर गठबंधन राजनीति और मतदाता जागरूकता की ओर बढ़ रही है.

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