रथ सिर्फ वाहन नहीं, सत्ता का प्रतीक है
राजनीति में मंच पर जगह सिर्फ ‘चढ़ने’ की नहीं होती, ये वो इशारा होता है, जिससे भविष्य तय होता है. राहुल गांधी के साथ तेजस्वी का मंच साझा करना कोई संयोग नहीं था. ये एक रणनीतिक संकेत था. गठबंधन का युवा चेहरा, जमीनी पकड़, और जातिगत समीकरण सबकुछ तेजस्वी के पक्ष में था. कन्हैया कुमार जो कभी टीवी डिबेट्स में चमकते थे और पप्पू यादव जो कोसी-सीमांचल में आज भी भीड़ खींचते हैं, उन्हें नीचे खड़ा देखना बताता है कि राजनीति अब सिर्फ जनता से नहीं, “प्रोजेक्शन” से भी चलती है.
कन्हैया और पप्पू : दो चेहरों की चुप्पी
कन्हैया कुमार जो वाम से मुड़ कांग्रेस की ओर आये थे, उनकी राजनीति आज भी दिशा तलाश रही है. वे राहुल के नज़दीक हैं, लेकिन पार्टी के पोस्टर से आगे नहीं बढ़ पा रहे. पप्पू यादव, जो बाढ़ में लोगों के घर तक राशन पहुंचाते हैं, अस्पताल में स्ट्रेचर उठाते दिखते हैं. उनकी मेहनत की सियासी ””कीमत”” शायद तेजस्वी की छाया में धुंधली हो रही है. रथ पर नहीं चढ़ने और रोकने का दर्द उन्होंने बयान नहीं किया, लेकिन इशारों में इतना जरूर कह दिया कि “कोसी और सीमांचल में मैं अभी भी जिंदा हूं”.
इस बार जाति का संतुलन, अगली बार चेहरों की लड़ाई
राहुल गांधी ने जिन चेहरों को मंच पर चुना उनमें एससी, अल्पसंख्यक, भूमिहार और ब्राह्मण रहे. वो कांग्रेस की बिहार में सामाजिक इंजीनियरिंग का ट्रेलर था. लेकिन मुख्य नायक तेजस्वी ही दिखे. ये गठबंधन की रणनीति भी थी और नेतृत्व की स्वीकृति भी. लेकिन, बेगूसराय लोकसभा की सीट पर 2019 के लोकसभा चुनाव में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह को कड़ी टक्कर देने वाले कन्हैया कुमार और एनडीए व राजद के विरोध के बावजूद 2024 के लोकसभा चुनाव में पूर्णिया सीट पर जीत हासिल करने वाले पप्पू यादव को राहुल-तेजस्वी वाली रथ पर जगह नहीं मिल पायी.
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