Exclusive Interview: एक पूर्व आईएएस अधिकारी, वरिष्ठ राजनेता और पूर्व वित्त एवं विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा, जिन्होंने प्रतिष्ठित प्रशासनिक सेवा छोड़कर राजनीतिक जीवन को चुना. उनके जीवन के संघर्षों, सिद्धांतों और प्रेरणाओं की कहानी बेहद प्रेरक और रोचक है. प्रभात खबर डिजिटल के संपादक जर्नादन पांडेय ने उनके सरकारी नौकरी और सार्वजनिक जीवन पर लंबी बातचीत की. हम पेश कर रहे हैं इस बातचीत की दूसरी कड़ी. इस विशेष साक्षात्कार की दूसरी कड़ी में उन्होंने साझा किया कि किस तरह आत्मसम्मान के टकराव ने उन्हें सत्ता की बजाय सेवा का रास्ता चुनने के लिए प्रेरित किया. पढ़ें, कैसे एक शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी और राजनयिक अंततः जननेता बने. पढ़ें, एक्सक्लूसिव इंटरव्यू की दूसरी कड़ी.
जनार्दन पांडेय: 1947 में देश आजाद हुआ था. 2047 की बात कर रहे हैं. लेकिन 1937 में आप का जन्म हुआ है. आप जब होश संभाल रहे होंगे, जब आप देख रहे होंगे अपने आसपास, तो स्वतंत्रता की लड़ाई और लड़ाई के बाद का जोश दिखाई दे रहा होगा?
यशवंत सिन्हा: स्वतंत्रता की लड़ाई के कुछ अनुभव अभी भी हैं. कुछ याद आ सकते हैं. अच्छा अनुभव तो नहीं किया. छोटी छोटी बातें तो वह कुछ-कुछ दृश्य याद है 1947 में. मुझे याद है कि जब भारत स्वतंत्र हुआ तो मैं स्कूल में पढ़ता था. सातवीं कक्षा में था. अच्छा तो उस समय यह याद है कि स्कूल में मिठाई बांटी गई. भारत स्वतंत्र हो गया है और उसके बाद फिर आप पढ़ाई को आगे ले जाते हुए. यह तो हम देखते थे. कहने सुनने की जरूरत नहीं थी. अच्छा मैं आपको बताऊं 1942 का वह दृश्य होगा कि हमारे घर से कुछ दूर एक सड़क जाती थी. उसके बाद एक चौराहा था. वह बहुत मशहूर चौराहे पटना का, क्योंकि वह साहित्य सम्मेलन का भवन जो है, वहीं पर है. वहां आपको याद है कि वहां पर लोगों ने काट के पेड़ से रास्ता जाम करके रखा हुआ था. उधर से गोरों, गोरे फौजों की एक का एक ट्रक आया. उसमें से तुरंत उतरे.क्योंकि उनको वह जो अवरोध था, उसको हटाना था. लोग उतरे और उसको हटाया और आसपास के जो घर थे, हम लोग थोड़ा दूर पर था. आसपास के जो घर थे वहां घुसकर लोगों के साथ मारपीट की. क्योंकि उनको शक हुआ कि इन्हीं लोगों ने यह काम किया है. यह जैसे एक दृश्य हमारे जहन में ताजा है. इस तरह का उस समय हुआ था अस्पताल से. बहुत अच्छी तरह याद है हमको. मिठाइयां बांटी. उसके बाद फिर जैसा मैंने कहा कि 1952 में मैं विश्वविद्यालय में आया.
जनार्दन पांडेय: आप थोड़ा-सा बैकग्राउंड बताएंगे कि विश्वविद्यालय तक उस दौर में. तब शिक्षा का पटना में इतना वर्चस्व था कि विश्वविद्यालय जाकर के अपने राजनीतिशास्त्र की पढ़ाई की है?
यशवंत सिन्हा: देखिए, उस समय क्या था ना यह अब मेरे लिए. मैं जानता था यह मेरे ऊपर एक. आप कह लीजिए कि पारिवारिक दबाव था. अच्छा है कि मुझे आईएएस बनना है. उस समय यह था कि आपको आईएएस बनना है. उसके लिए आपको तैयारी करनी है, तो उसके लिए मैंने तैयारी की. मैं साइंस के स्ट्रीम में जा सकता था. पटना साइंस कॉलेज में एडमिशन हो सकता था, क्योंकि मैट्रिक मैंने अच्छे नंबर से पास किया था तो साइंस कॉलेज में एडमिशन मिल जाता. लेकिन मैं जानबूझकर पटना कॉलेज में गया. आर्ट्स की पढ़ाई की. इतिहास और राजनीति शास्त्र लिया, जिसमें आईएएस में जो विषय होते हैं एग्जाम में उनको चुनने में हमको आसानी रहे। पास हो गया। मैं जब एमए की परीक्षा पास की थी तो उसके पास उसके बाद पटना विश्वविद्यालय या राजनीति शास्त्र के विभाग में वेकेंसी हो गई थी। बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन द्वारा चयनित थे। पटना विश्वविद्यालय में पहले हमारा वाइस चांसलर अप्वाइंटमेंट हुआ.
जनार्दन पांडेय: सर टॉपर रहे हैं क्या, अब इतना तीक्ष्ण जो है? आपका शिक्षा से इतना लगाव रहा है कि आप साइंस भी ले सकते थे? आपने आर्ट्स लिया तो आपको बतौर वाइस चांसलर भी अप्वाइंट किया गया, जो एक टॉपर नहीं होते हैं?
यशवंत सिन्हा: नहीं, पढ़ने वाले तो थे, लेकिन हम टॉप नहीं कर पाए. दुर्भाग्य से सेकंड हो गए. अच्छा तो चलिए वह होता है किस्मत में वहीं होता है.
जनार्दन पांडेय: जो टॉप पर है, वह कहीं होंगे?
यशवंत सिन्हा: वह टॉप किए बेचारे हमारे साथ थे. वह पुलिस सर्विस में आ गए. असम कैडर में चले गए. अब बेचारे इस दुनिया में नहीं रहे. वह एक साल ड्रॉप करके हमारे साथ उन्होंने एमए की परीक्षा दी और आईपीएस बने.
जनार्दन पांडेय: आपने बतौर शिक्षक बच्चों को पढ़ाया. फिर अपनी तैयारी जारी रखी?
यशवंत सिन्हा: तैयारी जारी रखी मैंने. वह करने में बहुत आसानी हो गई हमको, क्योंकि जो विश्वविद्यालय था, वह मेरे काम आ रहा था. उस समय जो किताबें हम कुछ लाइब्रेरी पढ़ सकते थे, तो पढ़ाई लिखाई का दौर चलता रहा. उसी क्रम में मैंने फिर आईएएस की परीक्षा दी. जैसा मैंने आपसे कहा कि अच्छे पोजिशन के साथ हम फर्स्ट अटेम्प्ट में आईएएस में आ गए. एक रास्ता पकड़ लिया. फिर उस रास्ते से बहुत संतुष्टि नहीं मिली.
जनार्दन पांडेय: हमको जैसे थोड़ा सा पता है कि आपने आत्मसम्मान में नौकरी छोड़ दी?
यशवंत सिन्हा: उसके तफसील में नहीं जाना था. बतौर डीएम हम डिप्टी कमिश्नर थे जब संथाल परगना एक जिला था. उसमें अभी छह जिले हैं. वहां पर छह सब डिवीजन थे उस समय और उस समय के पूरे बिहार का सबसे बड़ा जिला जो था, वह संथाल परगना होता था. उसके हम डिप्टी कमिश्नर थे. दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि उस समय के बिहार के मुख्यमंत्री थे. उनसे हमारा ओपनली पब्लिक में झगड़ा हो गया, क्योंकि हमको लगा कि उन्होंने कुछ ऐसी बात की, जो हमारे सम्मान के खिलाफ थी, तो मैंने उसका जवाब दिया. हम चूंकि कमजोर पक्ष थे. वह मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने रातों रात ही पटना पहुंच…
जनार्दन पांडेय: मैं तो देख रहा हूं कि अभी तक वह बात वैसे ही जज्बात का पड़ा होगा?
यशवंत सिन्हा: जज्बा है. उसमें अभी भी कोई कमी नहीं आई है कि वह तो गॉड गिवेन होता है ना. ईश्वर की देन है.
जनार्दन पांडेय: सीएम के साथ झगड़ा हो गया?
यशवंत सिन्हा: सीएम के साथ झगड़ा हो गया. फिर हमारा ट्रांसफर हो गया.
जनार्दन पांडेय: थोड़ा सा या बहुत मामूली झगड़ा… क्या?
यशवंत सिन्हा: वह झगड़ा कुछ नहीं था. झगड़ा यह था कि यह 1967 की बात है.
जनार्दन पांडेय: अच्छा, 1967 एवं बिहार यानी कि महामाया प्रसाद सीएम होंगे?
यशवंत सिन्हा: आप उस वक्त सीएम थे.
जनार्दन पांडेय: बिहार की समता पार्टी संभवत:.. कुछ ऐसी ही पार्टी थी?
यशवंत सिन्हा: महामाया बाबू और जो प्रदेश के इरीगेशन मिनिस्टर थे, कम्युनिस्ट पार्टी के थे चंद्रशेखर सिंह. यह दोनों हमारे यहां आए. चर्चा होती रही. कुछ एक जनता दरबार लगा हुआ था. लोगों की शिकायतें भी थीं. कुछ इस तरह का था तो वहां पर जो बातचीत हुई, मुझे लगा कि जिस तरह यह लोग बात हमसे कर रहे हैं, उससे हमारा कम और डीसी के पद की गरिमा को ठेस पहुंच रहा है. तो हमने कहा इस बात को लेकर कि इस तरह से यहां पर बात मुझसे नहीं करनी चाहिए. फिर बात आगे बढ़ी और कि वह लोग ज्यादा शक्तिशाली थे. हमारा ट्रांसफर हो गया. हमारा ट्रांसफर हो गया और उसके बाद फिर हम दिल्ली चले गए वाणिज्य मंत्रालय में. कॉमर्स मिनिस्ट्री में जब चले गए तो किसी धारा ही बदल गई जिंदगी की. फिर उसके बाद वहां से मेरा जर्मनी पोस्टिंग हो गया. साढ़े तीन साल जर्मनी में रहे। फिर लौटकर पटना आए.
जनार्दन पांडेय: थोड़ा सा पूछूं मैं कि पटना में रहते हुए अंग्रेजी या किसी दूसरे देश जाने का जो थोड़ा सा भय जैसा मन में होता है, ऐसी स्थिति थी कि मतलब जैसे कि क्या एक बार नहीं होगा?
यशवंत सिन्हा: आपने यह विषय छेड़ा है तो आपको बता दूं कि मैं एक स्कूल है पटना में जो बहुत अच्छा स्कूल माना जाता था, आज भी शायद है. पटना कॉलेजिएट. लेकिन उसकी जो मीडियम ऑफ इंस्ट्रक्शन जिसको कहते हैं, जिस भाषा में पढ़ाई होती है, वह भाषा हिंदी थी. अच्छा तो मैं हिंदी मीडियम स्कूल से पढ़कर गया. कॉलेज जब गया तो मैंने देखा कि जो लोग अंग्रेजी बोल रहे हैं फटाफट. उनका एक अलग क्लब है, ग्रुप है जो हम उस क्लब में नहीं हैं.
जनार्दन पांडेय: अच्छा अगर आप अंग्रेजी से दूर वाले क्लब के थे?
यशवंत सिन्हा: हां, हम अन्य अंग्रेजी वाले क्लब से दूर थे, क्योंकि हम अंग्रेजी बोल नहीं सकते थे. फिर हम लोग तीन चार मित्र थे तो उन्होंने कहा कि हम लोग भी अंग्रेजी बोलना चाहिए. अच्छा तो हुआ कि कल से हम लोग एक दूसरे के साथ अंग्रेजी में बात करेंगे.
जनार्दन पांडेय: यह होता तो कई बार है पर फलीभूत नहीं.
यशवंत सिन्हा: वहां तो होता क्या था? उसके दूसरे दिन यह हुआ कि हमको जब दिखाई देता था दूर से कि वह हमारा मित्र आ रहा है. हम कन्नी कटाकर किसी और तरफ चले जाते. सर्वोदय के तीन चार दिन के बाद हम लोग फिर मिले तो हमने कहा कि वह इस तरह से काम नहीं चलेगा. कुछ करना चाहिए. तो हमने कहा कि चलो अब व्यक्तिगत आधार पर कुछ कर सकते हैं तो करें. अच्छा तो हमने सोचा कि उसका बेस्ट तरीका यह है कि हम जो अंग्रेजी डिबेट हो रहा है उसमें भाग लें. तो पहला अंग्रेजी डिबेट हुआ तो हमने सबकुछ लिखकर उसको रख लिया.
आप सबको जरूरत बता रहा हूं. वहां गए तो धुंआधार हमने बोला अच्छा, लेकिन वह धुंआधार इतना तेजी से बोला. तब तक कि वह जजेज जो थे, उनको पसंद नहीं आया. लेकिन मैंने पार्टिशिपेट किया और अंग्रेजी सीखा. डिबेट में हमको ना केवल कॉलेज में बल्कि इंटर यूनिवर्सिटी डिबेटिंग कॉम्पिटीशंस में भी हम फिर फर्स्ट आने लगे तो फिर अंग्रेजी हमारे लिए कठिन नहीं रही. जब हम यूपीएससी के इंटरव्यू में गए, आईएएस के लिए कहा तो अंग्रेजी मेरे लिए कोई अनजान विषय नहीं था. हम अंग्रेजी में ही बातचीत कर सकते थे, आज भी कर सकते थे.
जनार्दन पांडेय: नहीं, वह तो मैंने ढेर सारी आपकी बातें मैंने सुनी है और हम जर्मनी गए. जर्मनी में आपने दूतावास में एक पद संभाला. फिर वह क्या समाप्त हो गया?
यशवंत सिन्हा: जर्मनी में फिर हम गए. उसके बाद एक पद होता है विदेश सेवा में, जिसको बोलते हैं काउंसल जनरल काउंसिल. हम फ्रैंकफर्ट में… उसके बाद… क्योंकि हम बॉन जो उस समय जर्मनी की राजधानी थी, वहां पर हम लोगों को मेरा काम पसंद आया तो उन लोगों ने फिर हमको फ्रैंकफर्ट में कॉन्सल जनरल बनाकर पोस्टिंग हमारी कर दी. वहां के काम… लगभग डेढ़ साल वहां रहे. फिर हम लौटकर आए तो बिहार लौटकर आए.
जनार्दन पांडेय: वहीं मैं जर्मनी में थोड़ा सा रोकूंगा. राजनीति और इतिहास के छात्र होने के नाते और बिहार से वास्ता रखने के नाते जर्मनी एक ऐसा प्रयोगात्मक भूमि रही है. मन में कुछ था जर्मनी जाकर देखने का, करने का? हिटलर का संबंध वहां से आता है और कई मतलब जर्मनी कई मायनों में राजनैतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि उसकी बहुत मजबूत है. और आपका बैकग्राउंड ऐसा था कि आपने इतिहास पढ़ा, आपने राजनीतिक शास्त्र पढ़ा. भारत जर्मनी में कुछ ऐसा महसूस…?
यशवंत सिन्हा: बहुत… बहुत कौतुहल था. अच्छा… बहुत कौतूहल के साथ हम लोग सब जर्मनी गए. पूरा परिवार खर्च कर… और बहुत उत्कट अभिलाषा मन में थी कि उन सब स्थानों को देखा जाए, जो जर्मनी के और यूरोप के… और दुनिया के इतिहास के साथ जिनका सीधा संबंध था. उस समय जर्मनी डिवाइडेड था. ईस्ट जर्मनी कम्युनिस्ट था. अच्छा और प्रजातांत्रिक देश था तो मैं बॉन में था. वह जर्मनी की उस समय राजधानी थी तो मैं बॉन गया. बाद में फ्रैंकफर्ट गया. तो हम लोग जब उस समय बर्लिन डिवाइडेड था एक शहर के नाते. पर लिस्ट भी ईस्ट बर्लिन और वेस्ट बर्लिन था. वह उसमें एक था, जो डिवाइडिंग लाइन थी. उसमें चेक पॉइंट चार्ली था. उसका नाम था.
जनार्दन पांडेय: चेक पॉइंट चार्ली?
यशवंत सिन्हा: चेक पॉइंट चार्ली था, जिसमें कि उधर की फौज रहती थी. इधर की फौज भी रहती थी. लेकिन क्योंकि हम लोगों के पास डिप्लोमैटिक पासपोर्ट था, तो हम लोग इधर उधर जा सकते… आसानी से आ जा सकते थे. जर्मनी बॉन से जब बर्लिन जाते समय रास्ते में हम लोग ईस्ट जर्मनी पास करते थे. क्योंकि, जो बर्लिन… बेस्ट बर्लिन था, वह एक टापू था. इस जर्मनी में जो कम्युनिस्ट देश था. बहुत तरह का अनुभव है और कुछ बहुत अच्छे अनुभव थे. बहुत कुछ सीखने को मिला और मैं अगर आप इजाजत देते हैं तो मैं एक बात आपको बताना चाहूंगा बिल्कुल कि जर्मनी में हिटलर के समय… ऑटोबान है. ऑटोबान का मतलब नेशनल हाईवेज.
जनार्दन पांडेय: नेशनल हाईवे?
यशवंत सिन्हा: जर्मन में उसको ऑटोबान बोलते हैं. अच्छा ऑटो मतलब गाड़ी और बान का मतलब सड़क… सड़क का… तो मैंने देखा कितनी अच्छी सड़कें थीं जर्मनी में. और कि ट्राफिक नियमों का बहुत कड़ाई के साथ पालन होता था. यूरोप में बाकी जगह भी यही था. लगभग उसी समय मेरे मन में ख्याल आया कि हमको कभी मौका मिलेगा, तो भारत मुंबई में ऐसी सड़कों को बनाने की कोशिश करूंगा. तो मौका मिला हमको. आपको याद होगा कि अटल जी के शासन के शुरू के दिनों में ही एक नेशनल हाईवे डेवलपमेंट प्रोग्राम बना और फिर हाइवेज का डेवलपमेंट हुआ. आज आप रांची से आए तो हजारीबाग आप फोरलेन से. कभी आप कल्पना कर सकते थे कि इस तरह की बढ़िया सड़क बन जाएगी?
जनार्दन पांडेय: जबकि यह पहाड़ी क्षेत्र है. हां, मैं आ रहा था, जो घाटियां थीं.
यशवंत सिन्हा: हां, दो तीन कठिन जगह में सड़क बनानी थी. उसके बाद आप यहां से जाएं, भले ही जाएं, पर अगर आप जीटी रोड पकड़ते हैं, तो बिल्कुल आप जाएंगे, तो इंटरनेशनल स्टैंडर्ड की सड़कें दिखाई देंगी. यह एक बड़ा भारी क्रांतिकारी कदम है.
जनार्दन पांडेय: आप अगर इजाजत दें, तो मैं एक बात कहूं आपसे कि क्या आप राजनीति के छात्र रहे हैं, इतिहास के छात्र रहे हैं, लेकिन आप छात्र नेता नहीं रहे? मैं तो आपके मन में जो राजनीति की तरफ जो बीज प्रस्फुटित हुआ, जो पहले की बात आई, वह क्या जर्मनी में…?
यशवंत सिन्हा: नहीं… नहीं… हमारे मन में यह बात आई राजनीति की, जब दुमका में मेरा झगड़ा हुआ मुख्यमंत्री के साथ.
जनार्दन पांडेय: फिर से?
यशवंत सिन्हा: नहीं.. वही शुरू में जो हुआ. पहली बार हमको मन में आया कि हम क्यों इतने कमजोर हैं कि वह अपनी बात रख सकते हैं मीडिया में और मैं नहीं रख सकता हूं. जनता के सामने जाकर सच्चाई का वर्णन नहीं कर सकता हूं. उसके बाद मैं धीरे-धीरे जेपी के संपर्क में आया. जयप्रकाश नारायण और जेपी के संपर्क में मैं आया तो मन में जेपी के लिए बहुत श्रद्धा थी.
जनार्दन पांडेय: वजह?
यशवंत सिन्हा: वजह यह थी कि जेपी का जो व्यक्तित्व थे, वह कहानियां हम सुनते थे. हमने बड़े भाइयों से… अच्छा है कि जेपी ने ऐसे किया, जेपी ने वैसे किया. जेपी को इस तरह अंग्रेजों ने प्रताड़ित किया. लाहौर जेल में उनको बर्फ की सिल्ली पर सुलाया. यह किया, वह किया… तो मैं एक नजदीकी महसूस करता था और जेपी के लिए धीरे से करके मन में बहुत श्रद्धा का भाव था. आजादी के आंदोलन से लेकर…
जनार्दन पांडेय: हमारी पीढ़ी जेपी को जानती है 1975-77 से..?
यशवंत सिन्हा: तो मैं जैसा आपसे कह रहा था कि मुझे व्यक्तिगत तौर पर बहुत धक्का लगा, जब मेरा ट्रांसफर हो गया संथाल परगना से दिल्ली… और मैं दिल्ली चला गया. और बार-बार यह मन में ख्याल आया कि हम क्यों इतने कमजोर हैं कि हम अपनी बात भी नहीं रख सकते हैं जनता के सामने. दोबारा घर कर गई मन में. तो उसके बाद मैं जेपी के संपर्क में आया. फिर दिल्ली आया. उनसे मुलाकात की… बात की… और फिर एक ऐसा अवसर भी आया कि मैं आईएएस की नौकरी छोड़ दूंगा और जेपी के जो बिहार का आंदोलन था, उसमें भी शामिल हो जाऊंगा.
जनार्दन पांडेय: इंदिरा गांधी जी का कोई रोल नहीं?
यशवंत सिन्हा: इंदिरा गांधी जी का रोल नहीं था.
जनार्दन पांडेय: उनसे किसी किस्म की कोई भेंट मुलाकात नहीं?
यशवंत सिन्हा: भेंट मुलाकात नहीं. मैं सरकारी अफसर था. इधर-उधर मीटिंग में मुलाकात हो जाती थी. लेकिन कोई व्यक्तिगत हमारी मुलाकात, उनसे व्यक्तिगत मुलाकात एक बार ही हुई थी जब हम गवर्नमेंट… बॉन के दौरान… तो वह इंदिरा गांधी आई थीं. देश के प्रधानमंत्री के नाते भी उस समय हमारे जो अंबेसडर वहां पर थे… बाद में फॉरेन सेक्रेटरी बन गए…उन्होंने हमारी पत्नी को और हमको जिम्मेदारी दी थी कि इंदिरा गांधी जो बैंक्विट दे रही हैं… भोज देनी है जर्मन नेताओं को… उसको बिल्कुल आप इंडियन स्टाइल में डेकोरेट कीजिए. अच्छा तो हम लोगों ने उस काम को किया. उसमें मेरी पत्नी और हमने मिलकर काम किया. इंदिरा गांधी बहुत प्रसन्न हुई. उस समय हमारे अंबेसडर ने हम लोगों का परिचय कराया था इंदिरा गांधी से… लेकिन वह वहां खाना यहां था… तो उनके दिमाग में..
जनार्दन पांडेय: मैं इसलिए कह रहा हूं कि जो नई पीढ़ी है उसको कई फिल्में बनी हैं, जिसमें इंदिरा गांधी की जो शख्सियत दिखाई गई है.. तो इस तरह के.. जो नेता.. जो चीफ मिनिस्टर से टकरा जाएं. वह खुद भी ऐसे लीडर्स या ऐसे जो प्रशासनिक अधिकारी हैं, उन पर नजर रखती थीं. ऐसा लोगों में एक वक्तव्य है. तो जब आप नौकरी छोड़ने की तरफ गए और आप चूंकि प्रमुख सेंटर में काम कर रहे थे, वाणिज्य मंत्रालय में काम कर रहे थे?
यशवंत सिन्हा: नहीं, मैं शिपिंग, ट्रांसपोर्ट मिनिस्ट्री में था. और कई बातों को लेकर मन में निराशा थी. शिपिंग एंड ट्रांसपोर्ट मिनिस्ट्री में मैं था तो एक समय था, जब मैं दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन को भी देखता था, डीटीसी को कुछ दिनों के लिए, क्योंकि उनके जो थे प्रशासक, चेयरमैन, डीटीसी इंटक… अच्छा तो हमारे मंत्री ने अभी को चार्ज दिलवा दिया. मैं मंत्रालय में जॉइंट सेक्रेटरी भी था और डीटीसी का चेयरमैन भी था.
जनार्दन पांडेय: निराशा किस बात से थी?
यशवंत सिन्हा: निराशा इस बात से हुई… फिर एक वही दुमका वाली घटना की पुनरावृत्ति हो गई. एक वहां एक कांग्रेस पार्टी के लिए कांग्रेस पार्टी की सरकार भी थी. कांग्रेस पार्टी के एक एक्टिविस्ट थे. फिर मैं कहूंगा कि ट्रेड यूनियन के… वो बहुत ज़बरदस्त हस्तक्षेप करते थे डीसी डीटीसी के मामले में… और वह चाहते थे कि वह जो कहें, मैं उसी रास्ते चलूं. वो बिल्कुल हमारे स्वभाव के विपरीत बात थी.
जनार्दन पांडेय: आत्मसम्मान पर जब कभी भी बात आई है…?
यशवंत सिन्हा: ..तो हमारा उनका झगड़ा हो गया बहुत जोर का. उस समय भी मैंने महसूस किया कि हम कमजोर पक्ष हैं, क्योंकि वह पब्लिक में जाकर अपनी बात कह सकते हैं, मीडिया में अपनी बात कह सकते हैं, मैं नहीं कह सकता हूं. वह शायद दुबारा… फिर यह मेरे मन में आया कि मैं आईएएस की नौकरी छोड़ दूंगा… छोडूंगा… हां और इस कमजोरी से मुक्ति पाऊं. फिर हुआ कि बीजेपी को हमने कहा था कि हम उनको ज्वाइन करेंगे. जेपी तो नहीं रहे हैं, लेकिन उनसे क्या हुआ… वादा हमको निभाना चाहिए. वह फिर मौका आया तो ठीक करीब…
जनार्दन पांडेय: परिवार से एक दबाव होता है. जब आप आईएएस…
यशवंत सिन्हा: परिवार से… दबाव नहीं होता है. कलीग्स का भी दबाव होता है. बिहार के चीफ सेक्रेटरी थे. वह दिल्ली में मेरे घर पर आए. अच्छा… और कहने लगे क्यों यह बेवकूफी का काम कर रहे हो आईएएस छोड़ने का… लेकिन मैं डिगा नहीं.
जनार्दन पांडेय: क्या मन में भाव था? कौन-सी बात सबसे ज्यादा जोर दे रही थी कि…?
यशवंत सिन्हा: …एक…और वो कि नौकरी तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. हमको था कि हमारे मन में जो बात थी, वह यह थी कि हम नौकरी छोड़ेंगे तो कहां जाएंगे? एक ऑप्शन था कि प्राइवेट सेक्टर में नौकरी कर लें. ठीक? और देश के एक दो उद्योगपति थे, जिन्होंने हमको कुछ ऑफर भी किया. अच्छा? कभी प्राइवेट सेक्टर में आ जाओ… तो उनसे मैंने यही कहा कि मैं दूसरी नौकरी करने के लिए इस नौकरी को नहीं छोड़ रहा हूं, क्योंकि इस नौकरी से बेहतर कोई नौकरी देश में नहीं है. लेकिन मैं उस समय पब्लिक लाइफ में आना चाहता था. फिर कुछ ऐसा चक्कर चला. चंद्रशेखर जी से मेरी मुलाकात हुई. उनसे प्रेरित होकर फिर मैंने तय किया कि मैं राजनीति में आऊंगा और फिर 1984 का चुनाव आ गया. इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी. और चूंकि जनता पार्टी जेपी ने बनाया था. तो मैंने तय किया कि मैं सरकारी पार्टी में नहीं जाकर जनता पार्टी में जाऊंगा. अच्छा… तो मैं जनता पार्टी में गया और 1984 में से हजारीबाग में लोकसभा का चुनाव भी लड़ा. बहुत बुरी तरह हारा. लेकिन सबसे बड़ी बात जो हुई वह यह हुई कि मुझे एक निर्वाचन क्षेत्र मिल गया.
जनार्दन पांडेय: अच्छा!
यशवंत सिन्हा: बाकी नेताओं की तरह मैं इधर उधर भटका नहीं.
जनार्दन पांडेय: किसने चुनाव लड़ा था आपके साथ तो उस दौर में?
यशवंत सिन्हा: उस दौर में कांग्रेस पार्टी यहां से जीती थी… जैसे देशभर में… आपको याद होगा… 400 से ऊपर सीटें मिली थी… राजीव…
जनार्दन पांडेय: लोग बार-बार कोट करते हैं.
यशवंत सिन्हा: इसलिए सब लोग हार गए थे. उस समय चंद्रशेखर खुद हार गए. बहुगुणा हार गए.
जनार्दन पांडेय: आपको एहसास नहीं था क्या? इंदिरा जी की हत्या के बाद बाद मैं चुनाव लड़ने उनके अपोजिशन पार्टी में जा रहा हूं?
यशवंत सिन्हा: मैं जानता था कि जीतना मुश्किल होगा, लेकिन फिर भी लड़ना है.
जनार्दन पांडेय: एक तरफ आपने नौकरी छोड़ दी, दूसरी तरफ चुनाव हार गए?
यशवंत सिन्हा: एक बार फिर मुश्किल दौर से जीवन गुजरा. दो तीन साल फिर हम जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बन गए और फिर धीरे-धीरे करके राज्यसभा के मेंबर बन गए. यह जो पीरियड था, जो आप कह सकते हैं, कम से वह केवल साढ़े तीन साल…
जनार्दन पांडेय: आपके बच्चे कितने बड़े थे?
यशवंत सिन्हा: बच्चों का जहां तक सवाल है तो हमारी बेटी की शादी हो गई थी. जब मैं मैंने आईएएस की नौकरी छोड़ी, उसकी तरफ और एक ही बेटी थी. उसकी शादी हो गई तो हमारे लड़के थे. वो दोनों लड़के आईआईटी दिल्ली में चले गए थे तो उनका भी रास्ता खुल गया. इसलिए हमने छोड़ दिया था. छोड़कर भटके… तीन साढ़े तीन साल… फिर राज्यसभा आ गए तो फिर एक रास्ता पकड़ लिया.
जनार्दन पांडेय: पर, आपका जो अभी तक का जो हमने सुना, चाहे वह शिक्षक बनने का, शिक्षक बनने के बाद अधिकारी बनने का, फिर बाकी.. इन सबमें एक चीज बार-बार निकल कह रही, जो आप कह नहीं रहे हैं. आप में एक आकर्षण है. अब आप जब जाते हैं, किसी क्षेत्र में काम करने तो सबसे प्रमुख वहां की चीज होती है? वह आपकी तरफ आती है. जब नेता तो बहुत सारे लोग बनते हैं, लेकिन आपका चुनाव लड़ना, चुनाव हारने के बाद फिर राज्यसभा चले जाना, फिर एक ऐसी जगह में चले जाना तो एक किस्म का कुछ तो था आपके अंदर, जो लोगों को दिखता था?
यशवंत सिन्हा: हजारीबाग जैसी जगह को हमने छोड़ा नहीं था. आपको बताऊं कि जब एनआईटी नहीं थी और मैं चुनाव लड़ रहा था तो किसी गांव में मैं जाता था वोट मांगने के लिए, तो लोग हमसे पूछते थे कि आप किस गांव के हैं. अच्छा… तो मैं नहीं बता सकता था मैं किस गांव का हूं. तो फिर मैंने तय किया कि नहीं… मैं हजारीबाग में आकर बसूंगा. यही रहूंगा. आज हम लोग जहां बैठकर बात कर रहे हैं, इसी का एक हिस्सा बना. तो अब कोई भी हमसे पूछता है कि आप किस गांव किस गांव के हैं?
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