– बिहार के वरिष्ठ नाट्यकर्मी परवेज अख्तर-
हबीब साहब रंग मंच की दुनिया में बड़ी शख्सियत के रूप में याद किये जायेंगे. वह आम लोगों के रंगकर्मी थे. अभिजात्य रंगमंच से जुदा वे पूरी तरह जनोन्मुखी नाट्यकर्मी थे. यही बात है कि वे आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं. स्थानीय बोलियों को उन्होंने रंगमंच पर सम्मान दिलाया. दरअसल, वे उन चंद रंगकर्मियों में शामिल थे, जिन्होंने रंगमंच की दुनिया में स्थानीयता को स्थापित किया. वह भी पूरी ताकत के साथ. वे मानते थे कि क्षेत्रीय बोलियों में ही रंगमंच का भविष्य है.
क्षेत्रीय बोलियों में ही रंगमंच का भविष्य
हबीब तनवीर को भरोसा था कि जब तक आप क्षेत्रीय नहीं होंगे, तब तक राष्ट्रीय और उसके बाद अंतरराष्ट्रीय नहीं हो सकते. वे कहा करते थे कि रंगमंच क्षेत्रीय परिघटना है. सामान्य तौर पर उनसे पहले स्थानीय बोलियों का रंगमंच पर प्रभाव न के बराबर था. उन्होंने खोमचे वालों, कामगारों, पतंग उड़ाने वालों और पटरी बाजार में बैठने वालों की भाषा से रंगमंच को सजाया. जीवंत बनाया. जिसे सारी दुनिया में सराहा गया. आम लोगों की भाषा और बोलियों को जितनी ताकत उन्होंने दी, शायद ही कोई और ऐसा कर सका.
हमेशा बने रहेंगे प्रासंगिक
अठारहवीं सदी के प्रतिष्ठित कवि नजीर अकबराबादी के जीवन पर आधारित ‘आगरा बाजार’ नाटक का जिक्र करना जरूरी है. इसके जरिये सबसे पहले उन्होंने छत्तीसगढ़ी बोली का इस्तेमाल कर क्षेत्रीय भाषा को ताकत दी. उन्होंने पतंग बेचने वालों की भाषा का भी अपने रंगमंच पर इस्तेमाल किया. छत्तीसगढ़ी में ‘चरणदास चोर’ नाटक अद्वितीय था. उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया.
राजनीतिक नजरिये से वामपंथी थे हबीब तनवीर
1988 में भारत भवन में मेरी उनसे मुलाकात हुई थी. उनकी यह मुलाकात तब हो सकी, जब उन्होंने मेरा नाटक ‘मुक्त पर्व’ देख न लिया. वह राजनीतिक नजरिये से वामपंथी थे, लेकिन सही मायने में वह जनोन्मुखी कलाकार थे. इससे वे कभी डिगे नहीं. हबीब साहब हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे. क्योंकि वह मानते थे कि रंगमंच सामुदायिक सक्रियता का माध्यम है. वह भी सबसे सशक्त माध्यम.
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हबीब तनवीर के बारे में
हिंदी रंगमंच के इतिहास में लोकाख्यान का दर्जा पा चुके हबीब तनवीर का जन्म आज ही के दिन सौ वर्ष पहले रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ था. भारतीय रंगमंच के मानचित्र पर हबीब तनवीर ऐसी जगह स्थापित हैं, जहां उनकी बराबरी करने वाला कोई नहीं है. हबीब तनवीर ने जो कहानियां अपने नाटकों के माध्यम से कहीं, वे सीधी-साधी, परंतु असर डालने वाली थीं. उन्होंने भारत के नये तरह के रंगमंच की नींव डाली. उनके ग्रुप का नाम भी था ‘नया थिएटर’ था. आगरा बाजार, चरणदास चोर, बहादुर कलारिन, शाजापुर की शांतिबाई, गांव का नाम राजा हिरमा की अमर कहानी, मोटेराम का सत्याग्रह जैसे नाटकों के जरिये उन्होंने भारतीय रंगमंच का मुहावरा ही बदल दिया.
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