फिल्म -देवा
निर्माता -सिद्धार्थ रॉय कपूर
निर्देशक -रोशन एंड्रयूज
कलाकार -शाहिद कपूर,पूजा हेगड़े, कुब्रा सैट, पॉवेल गुलाटी,प्रवेश राणा, और अन्य
प्लेटफार्म – सिनेमाघर
रेटिंग -दो
deva review :साउथ की फिल्मों के रीमेक का फार्मूला अब तक बॉलीवुड भुना रहा है. एक दशक से भी ज्यादा पुरानी मलयालम फिल्म पुलिस फोर्स का हिंदी रीमेक देवा है. शायद कबीर सिंह की जबरदस्त कामयाबी की याद इतने सालों बाद भी अभिनेता शाहिद कपूर को रीमेक के आउटडेटेड फार्मूले पर भरोसा करने को मजबूर कर देती होगी, लेकिन उनका भरोसा खरा नहीं उतर पाया है.उन्होंने कबीर सिंह वाला एरोगेंट और एटीट्यूड इस बार भी बखूबी लाया है,लेकिन कमजोर लेखन ने इस मसाला एंटरटेनर को फीका अनुभव बना दिया है.
पुलिस और गैंगस्टर की वही है कहानी
साउथ की फिल्म का बैकड्रॉप केरल था यहां कहानी मुंबई में स्थापित की गयी है.खैर बैकड्रॉप नहीं मूल कहानी पर आते हैं.देव (शाहिद कपूर ) एंग्री यंग मैन टाइप पुलिस अफसर है. जो गुस्सैल स्वभाव से है और अब तक कई सौ फिल्मों में दिखाए जा चुके नियमों को ना मानने वाला पुलिस ऑफिसर है, लेकिन वह ईमानदार पुलिस है.अपनी ड्यूटी के लिए वह पॉलिटिशियन को भी नाराज कर देता है. अपने शर्तों पर वह ड्यूटी कर रहा होता है कि उसकी जिंदगी में ट्विस्ट उस वक़्त आ जाता है.जब उसके साथी ऑफिसर रोहन (पॉवेल गुलाटी )की ह्त्या हो जाती है. देव इस हत्या की साजिश रचने वालों को बेनकाब करने ही वाला होता है कि उसका एक्सीडेंट हो जाता है और उसकी याददाश्त चली जाती है .याददाश्त जाने के बाद रोहन का केस फिर देव को ही मिलता है . एक बार फिर वह अपराधी तक पहुंच जाता है . अपराधी कौन है .यही आगे की कहानी है . इस कहानी को अतीत और वर्तमान के जरिये फिल्म में दर्शाया गया है .
फिल्म की खूबियां और खामियां
रिव्यू के शुरुआत में ही यह बात कही गयी है कि यह फिल्म 2013 की मलयालम फिल्म का रीमेक है, जिससे कहानी में नयेपन का जबरदस्त अभाव है. स्क्रीनप्ले प्रेडिक्टेबल है. कहानी में याददाश्त जाने वाला एंगल नयापन जोड़ता है. क्लाइमेक्स साउथ फिल्म से अलग है, लेकिन आखिर में यह फिल्म कई सवालों के जवाब नहीं देती है. इसके साथ ही स्क्रीनप्ले देव के किरदार को भी सही तरह से परदे पर नहीं ला पाया है. उसके उसूलों और काम के बीच में विरोधाभास दिखता है. याददाश्त खोने की दुविधा को भी लेखकों ने सरसरी तौर पर ही छुआ है. राजनेता आप्टे का ट्रैक अचानक से खत्म कर दिया गया है तो स्क्रीनप्ले में देव और दिया का रोमांस भी अधपका सा रह गया है.प्रभात जाधव को पकड़ने और मारने वाला प्रसंग भी रोमांचक नहीं है, हालांकि वह अग्निपथ से प्रेरित लगता है. फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म के साथ न्याय करता है, जबकि गीत संगीत कमजोर रह गया है.अमित रॉय की सिनेमाटोग्राफी जरूर अच्छी है. फिल्म की एडिटिंग पर थोड़ा और काम किया जा सकता था. फिल्म का एक्शन अच्छा बन पड़ा है.संवाद औसत हैं, जबकि इस तरह की फिल्मों की जरूरत अच्छे संवाद होते हैं.
शाहिद कपूर हैं दमदार
अभिनय की बात करें तो यह शाहिद कपूर ने एक्टर के तौर पर अपने किरदार में फिर से छाप छोड़ी है .उनका अभिनय फिल्म की अहम यूएसपी है. उन्होने अपने लोकप्रिय एरोगेंट एटीट्यूड को पर्दे पर बखूबी लाया है .इसके साथ ही फ़िल्म के सेकंड हाफ में उनका अलग अंदाज है .याददाश्त होने और खोने के बाद उन्होंने अपने किरदार को अलग अलग शेड्स में जिया है. पॉवेल गुलाटी ने सीमित स्क्रीन स्पेस में भी अच्छी परफॉरमेंस दी है .वह याद रह जाते हैं.प्रवेश राणा का काम भी अच्छा है.पूजा हेगड़े अपने किरदार के साथ न्याय करती हैं हालांकि उनके किरदार के लिए फिल्म में करने को ज्यादा कुछ नहीं था .बाकी के किरदार भी अपनी – अपनी भूमिका में जमते हैं .
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