फिल्म -ढाई आखर
निर्माता -कबीर कम्युनिकेशन, आरती प्रोडक्शन और अन्य
निर्देशक -प्रवीण अरोड़ा
कलाकार -मृणाल कुलकर्णी, आद्या अग्रवाल,हरीश खन्ना , रोहित कोकाटे और अन्य
प्लेटफार्म -सिनेमाघर
रेटिंग -ढाई
dhai aakhar movie review :हिंदी साहित्य की कई ऐसी कहानियां और उपन्यास हैं। जिन पर समय -समय पर फिल्में बनती रही है.इसी की अगली कड़ी फिल्म ढाई आखर है.यह फिल्म अमरीक सिंह दीप के उपन्यास तीर्थाटन पर आधारित है. कई फेस्टिवल्स में सराही गयी यह फिल्म अपने विषय की वजह से खास बन जाती है. आमतौर पर प्रौढ़ महिलाओं की इच्छाओं और ख्वाहिशों को बहुत कम रुपहले परदे पर जगह मिली है , लेकिन यह फिल्म पूरी तरह उसी की कहानी को कह रहा है. सीमित संसाधनों में बनी यह फिल्म एक ईमानदार कोशिश है.
पितृसत्ता सोच से संघर्ष करती एक महिला की कहानी
कहानी की बात करें तो फिल्म ८० के दशक पर आधारित है. विधवा हर्षिता (मृणाल कुलकर्णी )के दो बेटे ,दो बहुएं और एक पोती है. हरिद्वार तीर्थयात्रा के लिए वह अपने घर से निकली है.इसी बीच उनके कमरे में रखी हुई रामायण से परिवार को कुछ चिट्ठियां मिलती हैं. जिससे यह बात सामने आती है कि उनकी मां तीर्थ करने के लिए नहीं बल्कि लेखक श्रीधर (हरीश खन्ना )से मिलने गयी है. मालूम पड़ता है कि हर्षिता अपने पति की मौत के बाद भी अपनी बुरी शादी की यादों से जूझ ही रही होती है कि किताबों की एक स्टाल में मिली श्रीधर के एक उपन्यास की कहानी उसे अपनी जिंदगी सी लगती है. चिट्ठियों से बातचीत शुरू होती है. हर्षिता के अधूरेपन को श्रीधर की सोच और शब्दों में सहारा और सुकून दोनों ही मिलता है. जल्द ही दोस्ती हो जाती है और फिर प्यार में बदल जाती है. श्रीधर और हर्षिता का यह रिश्ता उसके बेटों को पसंद नहीं आता है.अपनी मां के घर आने के बाद वह उसे प्रताड़ित करना शुरू कर देते हैं. क्या पति के बाद हर्षिता अपने बेटों के अत्याचार को भी सहेगी या श्रीधर के साथ से मिले आत्मविश्वास की वजह से इस बार वह खुद को शोषित नहीं होने देगी। हर्षिता और श्रीधर की प्रेम कहानी का क्या होगा।इन सब सवालों के जवाब फिल्म आगे देती है.
फिल्म की खूबियां और खामियां तीर्थाटन की कहानी को फिल्म के स्क्रीनप्ले में बिना किसी ड्रामा और उतार चढ़ाव के परदे पर चलती है.फिल्म की लम्बाई डेढ़ घंटे से कम है. फिल्म मूल मुद्दे पर तुरंत आ जाती है. मसाला फिल्मों के दर्शकों के लिए या फिल्मों से सिर्फ मनोरंजन की चाह रखने वाले दर्शकों के लिए यह फिल्म नहीं है क्योंकि फिल्म ट्विस्ट एंड टर्न नहीं बल्कि मुद्दों को समेटे हुए है.पति से लगातार शोषित होने के बाद जब वह महिला विधवा हो जाती है,तो उसके बेटे उसकी जिंदगी को एक एक कमरे में सीमित कर देते हैं. क्या उस महिला की इच्छाएं या ख्वाहिशें नहीं हो सकती हैं. क्या वह अपनी जिंदगी में कभी खुशियां नहीं पा सकती है.इस मुद्दे के साथ -साथ यह फिल्म बिना प्यार के शादी से अच्छा बिना शादी वाला प्यार का रिश्ता ,घरेलू हिंसा के मुद्दे को भी फिल्म में उठाती है.फिल्म के गीत इरशाद कामिल ने लिखे हैं, जो फिल्म के सिचुएशन के साथ न्याय करते हैं. फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक ठीक ठाक है.फिल्म के संवाद कहानी के अनुरूप है.फिल्म को सीमित संसाधन में बनाया है. उत्तर प्रदेश कहानी का बैकड्रॉप रखा गया है , लेकिन कहानी ज्यादातर महाराष्ट्र में ही शूट हुई है.
मृणाल कुलकर्णी का सधा हुआ अभिनय
अभिनय की बात करें तो यह फिल्म मृणाल कुलकर्णी की है और उन्होंने अपने किरदार को हर फ्रेम में बखूबी जिया है किरदार से जुड़े शुरुआती डर या दशहत की बात हो या कहानी बढ़ने के साथ एक आत्मविश्वासी महिला में बदलना.उन्होंने बहुत सहज ढंग से इस ट्रांसफॉर्मेशन को दर्शाया है. हरीश खन्ना भी अपनी भूमिका के साथ न्याय करते हैं.रोहित कोकाटे नकारात्मक भूमिका में जंचते हैं. बाकी के किरदार भी अपनी -अपनी भूमिकाओं में ठीक ठाक रहे हैं.–
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