कोरोना के वजह से जहां देश-दुनिया परेशान हैं वहीं कुछ खबरों की मानें तो गांव की दिनचर्या, शहरों की दिनचर्या से भिन्न होने के कारण कोरोना का प्रभाव उस क्षेत्र में कम होता हैं.
आपको बता दें कि यह वायरस ऐसे लोगों को ज्यादा प्रभावित कर रहा हैं जिनकी उम्र 50 से ज्यादा हैं. मतलब जिनकी इम्यूनी सिस्टम कमजोर हैं. हालांकि, ग्रामीण लोगों की ज्यादा काम करने की आदत और ताजा साग-सब्जियों और फलों का सेवन करना उन्हें शहरी लोगों से भिन्न बनाता हैं और ज्यादा ताकतवर भी.
आज हम आपको बताने जा रहे हैं आदिवासी परंपरा के बारे में. दरअसल इस समाज में संक्रमण व महामारी से निबटने की पुख्ता व्यवस्था की गयी है. जब कभी भी गांव में संक्रमण या महामारी आती है ग्रामीण एकजुट होकर देवी-देवताओं का आह्वान करते हैं. इस दौरान गांव में मांस-मछली के सेवन से परहेज किया जाता है. ऐसा गांव में पवित्रता व शुद्धता के ख्याल से किया जाता है. साथ ही हर घर में धूप-धूना जलाया जाता है.
हालांकि, आपको बता दें अभी तक इस बात की पुष्टि नहीं हुई हैं कि मांस-मछली छोड़ देने से कोरोना का असर खत्म हो जाएगा. लेकिन साफ-सफाई की व्यवस्था से कोरोना से जरूर बचा जा सकता हैं. इसकी पुष्टि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी की हैं
इस तरह कुछ दिनों में ही संक्रमण व महामारी खत्म हो जाती है. उक्त बातें बालीगुमा-खिकड़ी घुटू निवासी 92 वर्षीय भीम सोरेन ने कही. उन्होंने बताया कि महामारी के समय गांव के नायके बाबा (पुजारी) की अगुवाई में देवी-देवताओं का आह्वान कर कांसा लोटा में पानी भरकर जाहेरथान (सरना पूजा स्थल) में अर्पित किया जाता है.
उन्होंने बताया कि आदिवासी समाज इस आस्था व विश्वास को आज भी कायम रखे हुए हैं. इसी बदौलत समाज आज तक संक्रमण व महामारी से बचता आया है.
पर्व-त्योहारों में नीम दा: माडी सेवन का है चलन. आदिवासी समुदाय में संक्रमण व महामारी से बचने के लिए नीम दा: माडी का सेवन किया जाता है. पर्व-त्योहार के समय आवश्यक रूप से इसका सेवन लोग करते हैं.
लेकिन हाल के दिनों में इसका प्रचलन कम हो गया है. नीम दा: माडी इतना कड़वा होता है कि जिसने पहले कभी नहीं पीया हो, उसके लिए इसे पीना मुश्किल काम है. दरअसल नीम के पत्ते व चावल को मिलाकर भात तैयार किया जाता है.
Disclaimer: हमारी खबरें जनसामान्य के लिए हितकारी हैं. लेकिन दवा या किसी मेडिकल सलाह को डॉक्टर से परामर्श के बाद ही लें.
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