Gita Updesh: इन चीजों अभी ही बना लें दूरी नहीं तो जिंदगी में ऐसा गिरेंगे कि उठने लायक नहीं रहेंगे

Gita Updesh: भगवद गीता के अनुसार क्रोध, काम, लोभ, मोह और अज्ञान जैसे दोष मनुष्य के पतन का कारण बनते हैं. जानें गीता के श्लोकों में छिपा जीवन-संदेश.

By Sameer Oraon | May 22, 2025 10:40 PM
feature

Gita Updesh: हिंदू धर्मग्रंथों में श्रीमद्भगवद् गीता को सबसे प्रेरणादायक ग्रंथ माना गया है. इसमें बेहतर जीवन के लिए कई ऐसे मार्ग बताये गये हैं जो मनुष्य के लिए रोशनी का काम करता है. यही नहीं जीवन के कठिन परिस्थियों में यह हमें संबल देता है और हमारे लिए मार्गदर्शक का काम करता है. इस ग्रंथ में यह भी स्पष्ट रूप से बताया गया है कि किन कारणों से मनुष्य का नैतिक, मानसिक और आध्यात्मिक पतन होता है और कैसे वह अपने ही कर्मों के कारण सर्वनाश की ओर बढ़ता है. आइए जानते हैं गीता के अनुसार वे प्रमुख कारण क्या हैं जो किसी भी व्यक्ति के विनाश का कारण बनते हैं.

क्रोध विनाश का सीधा मार्ग

भगवद गीता अध्याय 2, श्लोक 63 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
“क्रोधाद्भवति सम्मोहः, सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥”
इसका अर्थ है कि क्रोध की वजह से भ्रम का जन्म होता है, यही भ्रम स्मृति के नाश का कारण बनता है और स्मृति के नाश से बुद्धि का विनाश होता है. एक बार मनुष्य के बुद्धि का हो गया तो मनुष्य के बुद्धि का पतन निश्चित है. क्योंकि क्रोध मनुष्य के विवेक को नष्ट कर देता है, जिससे वह गलत निर्णय लेने लगता है और अंत में विनाश की ओर अग्रसर हो जाता है.

Also Read: इंटरव्यू से पहले मस्सों की टेंशन? 6 घरेलू टिप्स को अपनाकर देख लें अच्छे अच्छे डॉक्टर हो जाएंगे फेल

मोह और अज्ञान (Attachment & Ignorance)

महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने मोह में फंसकर अपने परिवार का वध करने का विचार त्याग दिया था. उस वक्त श्रीकृष्ण ने मोह में न फंसने की सलाह दी थी. उन्होंने कहा था कि मनुष्य शरीर केवल मरता है, आत्मा कभी नहीं मरती. श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया यह उपदेश हमें सीखाता है कि जब मनुष्य मोह में फंस जाता है तो वह वास्तविकता से दूर हो जाता है. चाहे वह परिवार का मोह हो या फिर धन-संपत्ति का या मान-सम्मान का. वह अपने धर्म और कर्तव्य से भटक जाता है. यही मनुष्य के आत्मविकास से दूर होने का कारण बनता है.

कामना (Uncontrolled Desires) से दूर रहने में ही भलाई

गीता का अध्याय 3, श्लोक 37 में श्रीकृष्ण कहते हैं कि “काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः. महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्.” इसका अर्थ है कामना और क्रोध ही मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं. इच्छाओं का कोई अंत नहीं होता. जब ये इच्छाएं पूरी नहीं होतीं तो क्रोध जन्म लेता है, और यही चक्र विनाश की ओर ले जाता है.

लोभ ही (Greed) संतोषहीनता की जड़

लोभ का अर्थ है किसी भी चीज को अवश्यकता से अधिक पाने की लालसा. अगर यह किसी मनुष्य के अंदर में आ गया तो उसका विनाश तय है. गीता में कहा गया है कि लोभ भी भोग विलास से जन्म लेता है और यह व्यक्ति को नैतिक पतन की ओर ले जाता है. लोभ के कारण व्यक्ति अन्यायपूर्ण तरीकों से धन, पद या सुख प्राप्त करने की कोशिश करता है, जो अंततः उसके पतन का कारण बनता है.

आत्मविकास की उपेक्षा और अधर्म का समर्थन

गीता में धर्म का पालन सर्वोपरि बताया गया है. जब व्यक्ति स्वधर्म का त्याग करता है और केवल अपने लाभ को प्राथमिकता देता है, तब वह अधर्म का समर्थन करता है. श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही बताया कि युद्ध में भाग लेना उसका धर्म है और धर्म से भागना उसके पतन का कारण बनेगा.

Also Read: इस गांव में हर घर के सामने टांगा जाता है पुरुषों का प्राइवेट पार्ट, जासूस ज्योति मल्होत्रा भी जा चुकी है यहां

संबंधित खबर
संबंधित खबर और खबरें

Life and Style

होम E-Paper News Snaps News reels
Exit mobile version