Gita Updesh: धन कमाने की धुन में इन बातों को न करें नजरअंदाज, नहीं तो हो जाएंगे बर्बाद

Gita Updesh: भगवद गीता में धन अर्जन को धर्म, संयम और सेवा भाव से जोड़ा गया है. जानिए गीता के 5 प्रमुख सिद्धांत जो धन को साधन नहीं, साधना बनाते हैं.

By Sameer Oraon | May 20, 2025 9:32 PM
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Gita Updesh : धन आज के युग में जीवन यापन का एक अनिवार्य साधन बन गया है. लोग इसे अर्जित करने के लिए हर हथकंडा अपनाते हैं. इस दौरान वे कुछ जरूरी और अहम चीजों का ध्यान रखना भूल जाते हैं. गीता में धन अर्जन को गलत नहीं कहा गया है, बल्कि उसे संयम, धर्म और सेवा भाव से जोड़कर देखा गया है. गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धन अर्जित करने के लिए कई स्पष्ट और संतुलित दृष्टिकोण बताया है.

क्या कहा गया है गीता में धन अर्जन के बारे में?

गीता उपदेश में कहा गया है कि धन अर्जित करना गलत नहीं है. लेकिन उसका उद्देश्य और माध्यम शुद्ध, धर्मयुक्त और नैतिक होना चाहिए. गीता में कर्म, निष्काम भाव और संतुलित जीवन पर बल दिया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि धन लोभ के बजाय सेवा, धर्म और आत्मनिर्भरता का माध्यम बनना चाहिए.

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धन अर्जन पर गीता के 5 मुख्य सिद्धांत

  1. कर्म करते जाए फल की चिंता न करें
    श्रीकृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं. यानी धन अर्जन के लिए परिश्रम करो, लेकिन इसका मोह न रखें. इसका अर्थ यह नहीं कि फल की आकांक्षा ही छोड़ दें, बल्कि यह कि परिणाम में लोभ या भय न हो.
  2. धर्मयुक्त साधनों से ही धन अर्जित करें
    गीता का मूल संदेश है कि जीवन में जो भी कार्य करें, वह धर्म (नैतिकता और कर्तव्य) के अनुसार हो. श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति अधर्म के मार्ग से धन कमाता है, वह न केवल आत्मा को भ्रष्ट करता है, बल्कि समाज में भी असंतुलन पैदा करता है.
  3. लोभ केवल बर्बादी का मार्ग
    गीता में कहा गया कि “त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः कामः, क्रोधः तथा लोभः” लोभ, क्रोध और काम, ये तीन नरक के द्वार हैं. श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि धन के प्रति लोभ विनाश का कारण बनता है. इसलिए धन अर्जन करते समय लोभ और छल से बचना चाहिए.
  4. धन सेवा और समाज के हित के लिए हो
    गीता का उद्देश्य आत्मकल्याण के साथ-साथ लोककल्याण भी है. अर्जुन को उपदेश देते समय श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों को त्यागता है, वह समाज और आत्मा दोनों से दूर होता है. धन का उपयोग समाज, परिवार और जरूरतमंदों की सहायता के लिए होना चाहिए.
  5. संतुलित जीवन और वैराग्य का समन्वय
    गीता में “नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः…” की बात कही गयी है. यानि जो व्यक्ति न अधिक भोग करता है और न ही तप में अतिशय संलिप्त होता है, वही सच्चा योगी है. इसी प्रकार, धन का संतुलित उपयोग न अत्यधिक संग्रह, न अत्यधिक त्याग जीवन को स्थिर बनाता है.

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