जितिया या जीवित्पुत्रिका व्रत की शुरुआत आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि से शुरू होती है और इसका समापन नवमी तिथि को होता है.
आज सप्तमी तिथि है, इस दिन सरगही का विधान है. इसके बाद अष्टमी तिथि को निर्जला व्रत और नवमी तिथि को व्रत का पारण किया जाता है.
पंचांग के अनुसार, आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि 06 अक्टूबर दिन शुक्रवार की सुबह 06 बजकर 34 मिनट पर लग जाएगी, जिसका समापन अगले दिन 07 अक्टूबर दिन शनिवार को सुबह 08 बजकर 08 पर होगा. समय सूर्योदय के अनुसार तय होता है, इसलिए जगह के अनुसार टाइम में अंतर रहेगा.
जीवित्पुत्रिका व्रत में खड़े अक्षत(चावल), पेड़ा, दूर्वा की माला, पान, लौंग, इलायची, पूजा की सुपारी, श्रृंगार का सामान, सिंदूर, पुष्प, गांठ का धागा, कुशा से बनी जीमूत वाहन की मूर्ति, धूप, दीप, मिठाई, फल, बांस के पत्ते, सरसों का तेल, खली, गाय का गोबर पूजा में जरूरी है.
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती है.
जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, अक्षत, पुष्प, फल आदि अर्पित करके फिर पूजा की जाती है. इसके साथ ही मिट्टी और गाय के गोबर से सियारिन और चील की प्रतिमा बनाई जाती है.
जितिया व्रत संतान की दीर्घायु के लिए रखा जाता है. इस व्रत को रखने से संतान तेजस्वी, ओजस्वी और मेधावी होता है. शास्त्रों के मुताबिक जितिया करने वाली व्रती महिला के संतान की रक्षा स्वंय भगवान श्रीकृष्ण करते हैं.
पौराणिक कथा के अनुसार, महाभारत के युद्ध में जब द्रोणाचार्य का वध कर दिया गया तो उनके पुत्र आश्वत्थामा ने क्रोध में आकर ब्राह्रास्त्र चल दिया, जिसकी वजह से अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहा शिशु नष्ट हो गया. तब भगवान कृष्ण ने इसे पुनः जीवित किया. इस कारण इसका नाम जीवित्पुत्रिका रखा गया. तभी से माताएं इस व्रत को पुत्र के लंबी उम्र की कामना से करने लगीं
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जितिया व्रत की कथा बड़ी रोचक है. एक कथा चील और इसी पेड़ के नीचे रहने वाली सियारिन की भी है.
जितिया व्रत का पारण सात अक्टूबर दिन शनिवार को 10 बजकर 21 मिनट के बाद किया जाएगा. जितिया व्रत की पूजा अष्टमी तिथि प्रदोष काल में की जाती है. 6 अक्टूबर को शाम के समय प्रदोष काल में अष्टमी तिथि है. किंतु सात अक्तूबर को प्रदोष काल में अष्टमी तिथि नहीं है.
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