डॉ ऋतु सारस्वत
New Year 2023: साल दर साल बीतते चले जाते हैं. हर साल कुछ उम्मीदें टूटती हैं, तो कुछ सपने पूरे होते हैं. यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है. बीता साल भी कुछ सबक देकर गया, पर यही सबक जीवन की कठिन पगडंडियों पर चलना भी सिखा गया. यकीनन, आने वाला साल अपने साथ असीम संभावनाएं लेकर आया है. इन संभावनाओं का सिरा ‘हम’ के भाव से शुरू होता है. बीते कुछ वर्षों में ‘मैं’ के आधिपत्य ने समाज को बिखेर कर रख दिया था. अहम के टकरावों के बीच बिखरते परिवार, बिखरता समाज और इन सबको विवशतापूर्ण स्वीकार करता संवेदनशील वर्ग किंकर्तव्यविमूढ़ था. परंतु कोरोना का असहनीय दर्द, अपनों को खोने की पीड़ा ने फिर से ‘हम’ के भाव को सजीव कर दिया.
एक क्षण को अगर हम पिछले वर्ष के पन्नों को पलट कर देखें, तो भारतीय संस्कृति का मूल भाव प्रेम, समर्पण, त्याग स्पष्ट रूप से एक बार फिर अपना महत्व पा गया. बिना भेदभाव, अपने जीवन की चिंता किये बगैर असंख्य लोगों के जीवन की रक्षा के प्रति भागते कदम भारत की छवि को अलग ही रूप में गढ़ गये. जो इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि अंधेरा चाहे कितना घना क्यों न हो सुबह का आना तय है. अजनबियों के प्रति सहानुभूति के भाव ने साझा करने के भाव को विकसित किया. हम एक साथ कैसे विकसित हो सकते हैं, यह सोच इस वर्ष सुखद परिणाम लेकर आयेगी.
यहां आधी दुनिया का जिक्र भी जरूरी है. आने वाला समय भारतीय महिलाओं के लिए नयी आशाएं लिए हुए है. आर्थिक आत्मनिर्भरता के प्रति उनकी जागरूकता ने शहरों में ही नहीं, गांवों में भी नवीन अध्याय लिखने आरंभ कर दिये हैं. आशा ही नहीं, विश्वास भी है कि आने वाले समय में भारतीय परिवार ‘स्त्री सम्मान’ के प्रति अधिक जागरूक होंगे. इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि लिंग आधारित भेदभाव अब समाप्ति की ओर है. परंतु अभी भी उनके सम्मान का पाठ, उनको बराबरी का दर्जा देने की पहल कहीं लड़खड़ा रही है. इस सम्मान का पाठ घर से आरंभ करने की शुरुआत हर महिला के जीवन को सुरक्षित और सुखद कर देगी और यह साल उस विश्वास की ओर एक सुदृढ़ कदम है.
कम संसाधनों में जीवन जीने की भारतीय संस्कृति की कला बीते दशकों में पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध के आगे कहीं गुम हो गयी थी. नतीजा, असंख्य कल-कारखाने, धरती की छाती को चीरती मशीनें और खत्म होते जंगलों के परिणामस्वरुप प्रदूषण की गहरी अंधेरी छाया. जिसने भारतीयों के जीवन जीने की संभावना को पांच वर्ष तक कम कर दिया. एक सच यह भी है कि भारतीयों ने अपनी इस भूल को स्वीकार किया है. दस में से नौ भारतीय पर्यावरण के संरक्षण को लेकर जागरूक हैं. यह खुलासा ‘द ग्लोबल कॉमन्स सर्वे एटिट्यूड टू प्लेनेटरी स्टेवर्डशिप एंड ट्रांसफॉर्मेशन अमंग जी-20 कंट्रीज’ की रिपोर्ट से हुआ है. यह हमें आश्वस्त करता है कि आने वाला समय भारत के पर्यावरण को दूषित करने वाले कारकों को खत्म करने की ओर होगा.
आशा की किरणें उन नन्हें कदमों को भी स्पर्श कर रही है जो अपेक्षाओं के दबाव के चलते थक कर निढाल हो चुके हैं. नव वर्ष देश के किशोरों को भी उनके सपनों को साकार करने का एक मजबूत आधार अवश्य देगा. परिवार तथा समाज के भीतर एक बेहतर समझ का विकास नौनिहालों के जीवन को पंख लगा देगा. बस दूरी एक कदम भर की है. यह समझना जरूरी है कि नौनिहालों का जीवन ‘सफलता’ से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.
वह जो भोर होते ही रात तक सिर्फ घर को संभालने में अपना जीवन अर्पित किये बैठी हैं, पर कहीं गुम सी हैं. जिनकी घुटन और सिसकियां उन्नति के दौर में भागती और हांफती जिंदगियों को नहीं सुनाई देती. वह गृहणियां भी आशावान हैं कि उनके अथक परिश्रम को मान मिलेगा और यह खुले दिल से स्वीकार किया जायेगा कि वे परिवार की धुरी हैं. उनका महत्व समाज के निर्माण में सर्वाधिक है. यह वर्ष कांपते हाथों को भी यकीनन मुस्कान देगा. वह जिनके कंधों पर बैठकर कभी दुनिया देखी, आने वाला वर्ष उनके लिए भी एक स्वस्थ और खुशहाल वातावरण का निर्माण करेगा. और इसमें हर किसी का सहयोग होगा, क्योंकि बुजुर्गों के चेहरे की मुस्कान हम सब के सुरक्षित भविष्य की भी गारंटी है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना ने सामाजिक सुदृढ़ता को जहां बल दिया, वहीं स्वस्थ जीवन के प्रति चेतनता को भी जागृत किया. योग गुरु कहे जाने वाला भारत स्वस्थ जीवन की ओर अग्रसर हो चुका है. यह साल स्वस्थ भारत की ओर एक और सुदृढ़ कदम रखेगा. उम्मीदों भरी यह सोच विश्वास दिलाती है कि राहें चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हो मंजिल मिल कर रहेगी.
(लेखिका समाजशास्त्री हैं)
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