नकल, परीक्षा परिणाम और सामाजिक प्रतिष्ठा, जानें क्या है संबंध?

नयी दिल्ली: भारत की शिक्षा व्यवस्था में बोर्ड परीक्षाओं का अपना महत्व है. ये केवल उच्च शिक्षा या बेहतर करियर का प्रवेश द्वार भर नहीं हैं, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय भी हैं. इसके जरिये बच्चों के अभिभावक यह तय करते हैं कि समाज में और रिश्तेदारों के बीच वे गर्व से सीना चौड़ा करके […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 19, 2019 3:16 PM
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नयी दिल्ली: भारत की शिक्षा व्यवस्था में बोर्ड परीक्षाओं का अपना महत्व है. ये केवल उच्च शिक्षा या बेहतर करियर का प्रवेश द्वार भर नहीं हैं, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय भी हैं. इसके जरिये बच्चों के अभिभावक यह तय करते हैं कि समाज में और रिश्तेदारों के बीच वे गर्व से सीना चौड़ा करके चल सकेंगे या नहीं. जिनके बच्चे 90 फीसदी से ज्यादा वाली कथित उच्च श्रेणी का हिस्सा बन जाते हैं, वे लोग जी-भर के इसका ढिंढोरा पीटते हैं. वहीं, जिन बच्चों के खाते 70 फीसदी तक थम जाते हैं उनके घर के स्मार्टफोन ऑफ कर दिये जाते हैं, इस डर से कि कहीं कोई ताऊ या बुआ पूछ ना लें कि ‘अरे आपके मुन्ना का परसेंटेज क्या रहा’. आप सोच रहे होंगे इन लाग-लपेट वाली बातों का मतलब क्या है? आइये थोड़ा विस्तार से चलते हैं…

गुजरात से एक हैरान कर देने वाला मामला सामने आया है. गुजरात सेंकेडरी एंड हायर सेंकेडरी एजुकेशन बोर्ड के अधिकारी चीटिंग के एक ऐतिहासिक मामले को लेकर सकते में हैं. अधिकारियों ने बताया कि बोर्ड परीक्षा में 959 विद्यार्थियों ने एक ही जैसी गलती की है. इन सबने सवालों का जवाब एक ही क्रम में लिखा और समान गलती की. अधिकारियों का मानना है कि ये सामूहिक नकल का बहुत बड़ा मामला है.

गुजरात में नकल का हैरान करने वाला मामला

गिर सोमनाथ और जूनागढ़ जिले के परीक्षा केंद्रों से ऐसी शिकायतें मिलीं थीं. गिर सोमनाथ स्थित एक परीक्षा केंद्र में 200 विद्यार्थी ऐसे मिले, जिन्होंने एक निबंध की हूबहू कॉपी की है. इन्हें निबंध का टॉपिक मिला था, ‘बेटी परिवार का चिराग’ है. सभी बच्चों ने शुरू से लेकर अंत तक एक ही जैसा निबंध लिखा और सबमें समान गलतिया मिली. अपने तरीके का ये अनोखा मामला है. पूछताछ में छात्रों ने बताया कि शिक्षकों ने उन्हें बोलकर ये सबकुछ लिखवाया था. जाहिर है कि बिना किसी मदद के या फिर योजना के ऐसी गलती या चीटिंग नहीं की जा सकती. जिन भी विषयों में चीटिंग की शिकायत मिली है, सबमें यही समान गलती पायी गयी.

जानकारी मिली है कि बच्चों का रिजल्ट साल 2020 तक के लिए स्थगित कर दिया गया. सवाल ये है कि क्या सारी गलती बच्चों की है. ये घर से बच्चों द्वारा पर्ची लेकर जाने का मामला कतई नहीं है. परीक्षा केंद्र पर एक ही सोर्स से बच्चों को चीटिंग करायी गयी, इसकी पूरी संभावना है. संबंधित स्कूल के शिक्षक, परीक्षा केंद्र में तैनात व्यवस्थापक, सभी बराबर के जिम्मेदार होने चाहिये.

बड़ा है पर ये नकल का पहला मामला नहीं

वैसे ये चीटिंग का जरूर एक बहुत बड़ा मामला है लेकिन पहला कतई नहीं. इससे पहले भी बिहार, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में ऐसे मामले सालों से जारी हैं. बोर्ड परीक्षाओं के समय परीक्षा केंदों की खिड़कियों और पाइपों पर लटके परीक्षार्थियों के परिजनों की तस्वीरें शायद ही हमारे जेहन से गईं होंगी. हर साल ये मामले बढ़ते ही जाते हैं. हालात हैं कि वर्तमान में बोर्ड सहित प्रतियोगी परीक्षाओं में नकल एक व्यवसाय बन चुका है. नकल माफियाओं की चांदी हो रही है. लेकिन सोचने वाली बात है कि जिन बच्चों को बेहतर जिंदगी चाहिये, जिन माता-पिता को अपने बच्चों के लिए बेहतर परिणाम चाहिए वे आखिर क्यों इसके लिए तैयार हो जाते हैं. अब हम उसी बात पर लौट आते हैं कि बोर्ड परीक्षाओं का अंक आखिरकार सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय क्यों है?

चिंता में डालती है बीते वर्ष की असर रिपोर्ट

पिछले साल ‘असर’ नाम की संस्था ने एक सर्वेक्षण किया था. इस सर्वे में ये बात सामने आयी कि आठवीं कक्षा तक के बच्चों को पांचवी क्लास के हिन्दी पाठ्यपुस्तक का अध्ययन करने में परेशानी है. सामान्य अंकगणित यानी जोड़, घटाव, गुणा, भाग करने में वे सक्षम नहीं थे. इंग्लिश पाठ्यपुस्तक के अध्ययन के मामले में तो यह आंकड़ा न के बराबर था. बच्चे किसी बात को पढ़कर उसका आशय समझा पाने में अक्षम थे. ये सारा हाल प्राथमिक स्कूलों का था और तकरीबन प्रत्येक राज्य में था. क्या ये केवल बच्चों की कमी है… आंकड़े कहेंगे नहीं. ये आंकड़े 50 से 70 फीसदी बच्चों के थे.

परीक्षा आखिर सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय क्यों

पिछले कुछ सालों में शिक्षा बजट की बात करें तो ये कुल बजट का महज तीन फीसदी था तो इसमें प्राथमिक शिक्षा को क्या मिल पाता होगा, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. असर की रिपोर्ट में ये बात सामने आयी थी कि देशभर के प्राईमरी स्कूलों की जितनी संख्या है और जितने बच्चे उनमें नामांकित हैं, उसके हिसाब से देशभर में अब भी 1 लाख से ज्यादा शिक्षकों की कमी है. स्कूल में नामांकित 300-400 बच्चों में दो या तीन शिक्षक ही हैं. जाहिर है कि जितने विषय पढ़ाये जाते हैं उनके विशेषज्ञ शिक्षक उपलब्ध नहीं है. हालात ये हैं कि विज्ञान का ही शिक्षक, गणित, हिन्दी जैसे विषय भी पढ़ा रहा है. कई विषय तो बच्चे कोचिंग संस्थानोें के भरोसे पढ़ते हैं.

ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के प्रति जागरूकता का घोर अभाव, पढ़ाई का केवल अंकों के आधार पर मूल्यांकन, व्यवसायीकरण, केवल पास कर लेने भर वाली प्रवृत्ति और तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता के बाद बोर्ड परीक्षाओं का सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय बनने जैसी बातों का नकारात्मक परिणाम है ये पूरी नकल प्रणाली जिसने गुजरात के 959 बच्चों को गलती करने पर मजबूर किया और अब उनकी शिक्षा और करियर दोनों दांव पर है.

तेलंगाना में बोर्ड परीक्षा परिणामों के बाद 22 छात्रों की आत्महत्या की तस्वीरें अब भी जेहन में ताजा हैं. सोचना होगा कि आखिर एक एग्जाम, इतने बड़े पैमाने पर नकल, अपराध, सामाजिक प्रतिष्ठा और फिर आत्महत्या का कारण कैसे बन जाता है?

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