अकबर इलाहाबादी
अरसे बाद इलाहाबाद ‘राजनीतिक’ चर्चा में है. एक समय था जब देश को चलाने वालों की राजनीतिक दशा-दिशा यह शहर तय करता था. एक उपचुनाव ने देश के राजनीतिक वातावरण में भूचाल ला दिया था. बुलेट क्लासिक दौड़ाने वाली आज की युवा पीढ़ी शायद ही यह जान पाये कि पचीसों साल पहले इस शहर में हुई ‘बुलेट रैली’ ने राजीव गांधी की सत्ता की नींव हिला दी थी. इन दशकों में सियासत बदल गयी और सियासत करने वाले भी बदल गये. चाल और चरित्र का दावा करने वाले भारतीय जनता पार्टी बदले हुए चेहरे के साथ अपने राजनीतिक लक्ष्य को तलाशते हुए इलाहाबाद पहुंची.
बड़ा विचार हुआ, बड़े मन के साथ हुआ, बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुईं. मोदी-शाह की जोड़ी के आगे ‘लौह पुरुष’ मौन साध गये. वाजपेयी जी भाजपा में तबतक बोलते रहे, जबतक उनका स्वास्थ्य उनके साथ रहा. जरा सोचिए, आज अगर वाजपेयी जी स्वस्थ्य होते तो कार्यकारिणी में मंच पर चार की जगह पांचवी कुर्सी होती. ‘मौन’ वाजपेयी.
खैर, बात इलाहाबाद की. इलाहाबाद में आनंद भवन है और उससे पुराना स्वराज भवन है. यह बात अलग है कि कांग्रेस में अब न आनंद है और न ही स्वराज. कांग्रेस का जिक्र इसलिए क्योंकि जेटली जी के शब्दों में दो ही राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर हैं. एक भाजपा और एक कांग्रेस. तो उत्तरप्रदेश में तीसरे और चौथे नंबर की पार्टी पहले नंबर की पार्टी बनने की होड़ में है, वो भी वाया इलाहाबाद.
वाया इलाहाबाद इसलिए क्योंकि कांग्रेस के युवराज का मूल इलाहाबाद ही है. बीते कुछ दशकों में देखें, तो इलाहाबाद का राजनीतिक रसूख खत्म-सा हो गया है, क्यों? थोड़ी कल्पना कीजिए, अगर अन्ना आंदोलन को दिल्ली के विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों ने सहयोग नहीं किया होता तो आंदोलन की दशा-दिशा क्या होती? आंदोलन अन्ना का था, लेकिन दिखने वाले लोग युवा थे, जो यहां के विश्वविद्यालय में शिक्षा लेने आये थे.
इलाहाबाद का विश्वविद्यालय पहले जैसा नहीं रहा. वहा बुढ़ा-सा गया. आजसे दशकों पहले का इलाहाबाद जवान था. विश्वविद्यालय में तरुणाई थी. फिर क्या अमिताभ, क्या बहुगुणा और क्या वीपी. लड़कों ने देखते-देखते सबके लिए माहौल बना दिया. आज का इलाहाबाद वरुण गांधी की मांग में पोस्टर लगाने का माद्दा तो रखता है, लेकिन सच तो यह है कि वह ‘लौह पुरुष’ की तरह मौन हो गया है. भाजपा को इस ‘मौन’ से कुछ हासिल होने वाला नहीं है. खासकर उत्तरप्रदेश में.
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