राजदीप सरदेसाई की ‘शब्द श्रद्धांजलि” : दिलीप पडगांवकर, एक ऐसा संपादक जो दोस्त भी और मेंटर भी
राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकारदिलीप पडगांवकर का जाना पत्रकारिता जगत के लिए एक भारी नुकसान है. वे पुराने जमाने के एक ऐसे संपादक थे, जहां खबरों के साथ-साथ विचारों की महत्ता पर खासा जोर हुआ करता था. उनका मानना था कि एक अखबार में विभिन्न विचारों के बीच आपसी संवाद होना चाहिए. आजकल के संपादकों का […]
By Prabhat Khabar Digital Desk | November 26, 2016 2:36 PM
राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर का जाना पत्रकारिता जगत के लिए एक भारी नुकसान है. वे पुराने जमाने के एक ऐसे संपादक थे, जहां खबरों के साथ-साथ विचारों की महत्ता पर खासा जोर हुआ करता था. उनका मानना था कि एक अखबार में विभिन्न विचारों के बीच आपसी संवाद होना चाहिए. आजकल के संपादकों का विचारों के बीच संवाद पर उतना जोर नहीं होता, जैसा दिलीप जी के दौर में हुआ करता था. आजकल के अखबारों में तो विभिन्न तरह के संवाद के लिए बहुत कम जगह रह गयी है. वे ऐसे दौर के संपादक थे, जिसमें विचारों के बीच संवाद में अगर कोई टकराव हो, तो उस टकराव को भी जगह देते थे. संपादक होने के नाते वे सिर्फ लिखते ही नहीं थे, बल्कि खूब पढ़ते भी थे. उनके पास किताबों की एक बड़ी लाइब्रेरी थी. वहीं आजकल के संपादक कितना पढ़ते हैं, इस पर कभी-कभी शक होता है. एक पत्रकार-संपादक के अलावा दिलीप जी ऐसे बुद्धिजीवी थे, अपनी उदारवादी दृष्टि से एक चिंतक की छवि भी उन्होंने बना ली थी.
उनके व्यक्तित्व के कई आयाम हैं. उन्हें एक संपादक, एक सुधी पत्रकार, एक चिंतक और एक बेहतरीन दोस्त के रूप में देखा जा सकता है. एक वरिष्ठ पत्रकार और संपादक के तौर पर वे युवा पत्रकारों को बहुत प्रोत्साहन देते थे. हमारी आज की पत्रकारिता में ऐसे बहुत कम संपादक हैं, जो एकदम युवा पत्रकारों को कोई मौका देते हैं कि वे जाकर कोई बड़ी स्टोरी कवर करें. लेकिन दिलीप जी ने मुझे बहुत मौका दिया, चाहे 1992-93 के वक्त में एलके आडवाणी की रथयात्रा हो, या फिर उसके बाद के दंगे हों. उन्होंने मुझे 23 साल की उम्र में एडिटोरियल पेज पर लिखने का मौका दिया और 26 साल की उम्र में उन्होंने मुझे टाइम्स ऑफ इंडिया- मुंबई में मुझे सिटी एडिटर बनाया. इस एतबार से मैं समझता हूं कि वे युवाओं को काफी प्रोत्साहन देते थे.
जहां तक उनमें दोस्ती के भाव की बात है, तो वे हम जैसे युवा पत्रकारों से दोस्ती रखते थे. उन्हें मछली बहुत पसंद थी, और वे हमें मुंबई में रेस्टोरेंट में मछली खिलाने ले जाते थे. हमारे लिए उनका दरवाजा हमेशा खुला रहता था, हम उन्हें अपने संपादक के साथ-साथ एक दोस्त के नजरिये से भी देखते थे. उनके अंदर ऐसा कोई भाव नहीं था कि वे एक संपादक हैं, तो नये और युवा पत्रकारों से बात नहीं करेंगे. वे हर एक से बातचीत और संवाद कायम करने में काफी रुचि रखते थे. हमारे लिए वे ऐसे संपादक थे, जो हमारे दोस्त भी बन गये और मेंटर भी. अगर हममें कुछ गलतियां देखते या स्टोरी सही से नहीं लिख पाते, तो वे फौरन उसे सुधरवाने के लिए सलाह भी देते थे. पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसा बहुत कम ही होता है.
दिलीप जी का संपूर्ण व्यक्तित्व एक आदर्श व्यक्तित्व कहा जायेगा. वे बेहद शौकीन आदमी थे और उन्हें कला-संगीत से बड़ा लगाव था. उनकी कई रुचियां थीं और अपने संपादक कर्म के साथ-साथ उन रुचियों पर भी बराबर ध्यान देते थे. उन्हें खूब पढ़ने का शौक तो था ही, उन्हें संगीत से भी बेहद लगाव था. चाहे शास्त्रीय संगीत हो या फिर तात्कालिक सिनेमाई संगीत, हर तरह के संगीत को वे बड़े दिल से सुनते थे. पेंटिंग में भी उनकी गहरी रुचि थी. खाने के वे शौकीन तो थे ही. उनके इस बहुआयामी व्यक्तित्व के एतबार से मैं समझता हूं कि वे एक साथ दर्शन शास्त्र पर भी लिख सकते थे और मराठी खाने पर भी लिख सकते थे. निश्चित रूप से उनके जाने से भारत के पत्रकारिता जगत में एक जगह खाली रह गयी है, जो शायद कभी न भर पाये.