बेंगलुरु हादसे से सबक लेने का समय

Bengaluru stampede : भीड़ प्रबंधन के लिए सबसे पहले आयोजन स्थल को सुरक्षित करना पड़ता है. इसका ध्यान रखना पड़ता है कि भीड़ आयोजन स्थल की क्षमता से अधिक न हो, क्योंकि तब भीड़ को संभाला नहीं जा सकता. भीड़ प्रबंधन के तीन चरण होते हैं.

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 12, 2025 5:35 AM
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-राजीव चौबे-

Bengaluru stampede : इस महीने की शुरुआत में आरसीबी की जीत के जश्न पर बेंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर मची भगदड़ में जिस तरह लोग मारे गये, वह भीड़ प्रबंधन के मोर्चे पर लापरवाही का एक और उदाहरण है. आरसीबी टीम का स्वागत करने युवा, महिलाएं और बुजुर्ग सड़कों के किनारे खड़े थे. जब यह हादसा हुआ, तब स्टेडियम का गेट नहीं खुला था और बड़ी संख्या में प्रशंसक एक छोटे से गेट को तोड़ने की कोशिश कर रहे थे. उस स्टेडियम की क्षमता पैंतीस हजार लोगों की थी, जबकि सरकारी आंकड़े के मुताबिक, करीब तीन लाख लोग चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर इकट्ठा हो गये थे. बेंगलुरु में हुआ हादसा व्यवस्थागत विफलता का नमूना है.

जाहिर है, इतने बड़े आयोजन के लिए आयोजकों ने सरकार से अनुमति ही नहीं ली थी. हालांकि, यह पुलिस-प्रशासन और खुफिया विभाग की चूक का भी नतीजा है. उन्होंने इस आयोजन को बहुत गंभीरता से नहीं लिया. हादसे से एक रात पहले आरसीबी की जीत के जश्न में बेंगलुरु में काफी पटाखे फूटे थे. ऐसे में, पुलिस-प्रशासन को सतर्क हो जाना चाहिए था. लेकिन कोई बैरिकेडिंग नहीं थी. हादसा स्टेडियम के अंदर नहीं, स्डेडियम में घुसने के दौरान हुआ. तब वहां पुलिस की पर्याप्त व्यवस्था तक नहीं थी, भीड़ प्रबंधन की तो बात ही छोड़ दें.


इस मामले में मैं महाराष्ट्र का उदाहरण देना चाहूंगा. महाराष्ट्र में 2003 में नासिक के कुंभ में भगदड़ मचने से 39 लोग मारे गये थे. उसके दो साल बाद राज्य के सतारा जिले में एक पहाड़ी पर स्थित मंढेर देवी के मंदिर में जो हुआ, वह तो स्तब्ध करने वाला था. पौष पूर्णिमा के दिन जगह-जगह से श्रद्धालु मंदिर में इकट्ठा हुए थे. उस दिन मंदिर में नारियल तोड़ा जाता है और पशुबलि दी जाती है. अचानक दोपहर के समय कुछ श्रद्धालुओं के पैर उन सीढ़ियों पर फिसल गये, जो नारियल पानी के कारण गीली थीं. उसी दौरान आसपास की दुकानों में सिलेंडर फटने से आग लग गयी. ऐसे में भगदड़ मचने से ढाई सौ से ज्यादा श्रद्धालुओं की मौत हो गयी. इन दो हादसों से महाराष्ट्र ने सबक लिया और भीड़ प्रबंधन के मोर्चे पर काम शुरू हुआ. अब महाराष्ट्र में कहीं भी कोई आयोजन होता है, तो सबसे पहले भीड़ को संभालने की योजनाएं तैयार की जाती हैं. छोटे-छोटे आयोजनों में भी प्रशासन बहुत सतर्क रहता है. मॉक ड्रिल होती है कि भीड़ को कैसे ले जाया जाए.


भीड़ प्रबंधन के लिए सबसे पहले आयोजन स्थल को सुरक्षित करना पड़ता है. इसका ध्यान रखना पड़ता है कि भीड़ आयोजन स्थल की क्षमता से अधिक न हो, क्योंकि तब भीड़ को संभाला नहीं जा सकता. भीड़ प्रबंधन के तीन चरण होते हैं. पहले चरण में भीड़ आती है. दूसरे चरण में लोग बैठते हैं. और तीसरे चरण में लोग निकलते हैं. इन तीनों चरणों में आपको एक समान प्रयास नहीं करना होता. पहले चरण में भीड़ को संभाल लिया गया और तीसरे चरण में उसे बाहर निकालने का सुचारु इंतजाम किया गया, तो हादसे की आशंका कम हो जाती है.

अमूमन भीड़ के निकलते वक्त भगदड़ की आशंका ज्यादा रहती है. उस समय आगे बढ़ने वाली भीड़ को तत्काल रोकना पड़ता है. भीड़ प्रबंधन में पहले और तीसरे चरण में ही पूरा ध्यान रखना पड़ता है. बेंगलुरु हादसे को देखें, तो चूंकि कोई प्लानिंग नहीं थी, इसलिए पहले चरण में ही हादसा हो गया. एक चीज और ध्यान में रखनी चाहिए. चूंकि भीड़ प्रबंधन का हमारा अनुभव ज्यादातर महाराष्ट्र और मुंबई का है, इसलिए मैं यहां कहना चाहता हूं कि मुंबई के लोग भीड़ में चलने के ज्यादा अभ्यस्त हैं.


भीड़ भरी लोकल ट्रेन में सफर करते हुए वे खुद को बचा लेने के बारे में सीख लेते हैं. वे जानते हैं कि भीड़ बहुत अधिक हो, तो कैसे सांस ली जाए और बैग या सामान को किस तरह रखा जाए, ताकि शरीर के नाजुक या कमजोर अंगों को क्षति न पहुंचे. बेंगलुरु के हादसे में जो लोग मारे गये, उनमें से ज्यादातर कम उम्र के किशोर या युवा थे, जिन्हें भीड़ में चलने का अनुभव नहीं था. वे आइपीएल और विराट कोहली के दीवाने थे. उसमें कुछ महिलाएं भी थीं. एक महिला तो ऑफिस में अपना लैपटॉप खुला छोड़कर विराट कोहली को देखने निकल पड़ी थीं. वह भी हादसे में मारी गयीं. चूंकि इन लोगों को भीड़ में चलने का अनुभव नहीं था, इसलिए एक बार भीड़ में घिरने और गिरने के बाद वे घबरा गये और भगदड़ जैसी स्थिति बन गयी.

इस प्रक्रिया को वूलेन बॉल इफेक्ट कहते हैं, जिसमें लोगों का शरीर एक दूसरे के अंगों में फंस जाता है. इससे निकलना बहुत मुश्किल होता है. अगर किसी खास क्षेत्र में भीड़ उसकी क्षमता से अधिक हो और लोगों के मूवमेंट को नहीं रोका गया, तो स्थिति भीषण हो जाती है. बेंगलुरु हादसे का एक सबक यह भी है कि बुजुर्गों, बच्चों और महिलाओं को भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जाने से बचना चाहिए.


चिंताजनक बात यह है कि हाल के वर्षों में भगदड़ की कई घटनाएं सामने आयी हैं. जुलाई, 2024 में उत्तर प्रदेश के हाथरस के एक गांव में सत्संग के दौरान भगदड़ मचने से लगभग सवा सौ लोग मारे गये थे. वह हादसा तब हुआ, जब बाबा आयोजन स्थल से जा रहे थे, तो लोग उनके पीछे-पीछे भागने लगे, फिर भगदड़ मच गयी. इस साल हुए महाकुंभ के दौरान पहले 29 जनवरी को प्रयागराज में एक हादसा हुआ, जिसमें तीस लोग मारे गये. फिर नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर 15 फरवरी को हुई भगदड़ में 18 लोगों की मौत हुई. जाहिर है, भगदड़ के इतने मामले सामने आ चुकने के बाद अब हम सबको जागना होगा. महाराष्ट्र का अनुकरण करते हुए देश के सभी जगहों पर सार्वजनिक आयोजन से पहले भीड़ प्रबंधन की योजना बनानी होगी. इसमें पुलिस-प्रशासन के साथ आयोजकों की भी सक्रियता होनी चाहिए.

भीड़ प्रबंधन के लिए 2014 का नेशनल फ्रेमवर्क है, लेकिन उस पर अमल नहीं होता. उस पर अमल होना चाहिए. इसके अलावा लोगों को भी भीड़ प्रबंधन के बारे में सजग होना चाहिए. अगर आयोजन से पहले योजना बनायी जाए, भीड़ को आयोजन स्थल की क्षमता से कम रखा जाए, भीड़ के आने और उसके निकलने के लिए अलग-अलग दरवाजे रखे जाएं, भीड़ प्रबंधन के लिए स्वयंसेवक रखे जाएं और भीड़ में बच्चों, बजुर्गों, महिलाओं और बीमार लोगों को जाने देने से हतोत्साहित किया जाए, तो भगदड़ से बचा जा सकता है.
(लेखक रेजीलेंट इंडिया से जुड़े हैं.)
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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