Stampede : हरिद्वार के मनसा देवी मंदिर में भगदड़ की सुर्खियों की स्याही अभी सूखी नहीं कि उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले से भी भगदड़ की खबर आ गयी है. दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर देश तेजी से कदम बढ़ा रहा है. तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था का मतलब है कि देश तकनीक और सहूलियतों से लैस होता जा रहा है. इस संदर्भ में जब भगदड़ की घटनाएं सामने आती हैं, तो आधुनिकता से कदमताल करने वाली ये छवियां दरकने लगती हैं. ऐसा नहीं कि देश का ध्यान इस विरोधाभास की ओर नहीं है. फिर भी ऐसी घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं. ऐसी घटनाएं जब भी होती हैं तो एहतियाती कदम उठाये जाने की प्रशासनिक तंत्र की ओर से घोषणाएं होती हैं. कुछ दिनों में देश ऐसी घटनाओं को भुला देता है.
भगदड़ की घटनाओं को लेकर अपनी व्यवस्था कितनी संजीदा है, इसी वर्ष हुई घटनाओं से इसका अनुमान लगाया जा सकता है. वर्ष 2025 में ही सात घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें आधिकारिक तौर पर 81 लोगों की जान जा चुकी है. ये घटनाएं कुंभ जैसे भीड़भाड़ वाले सांस्कृतिक और पारंपरिक आयोजन में तो हुईं ही, राष्ट्रीय राजधानी के रेलवे स्टेशन से लेकर गोवा जैसे कम जनसंख्या वाले राज्य में भी घटीं. भगदड़ की घटनाओं के लिए नागरिक बोध की कमी को पहला कारण माना जाता है. लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि भगदड़ की ज्यादातर घटनाएं प्रशासनिक तंत्र की खामी की वजह से होती हैं.
मसलन, 15 फरवरी को नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर घटी घटना की वजह रेलवे अधिकारियों की सोच रही, जिन्होंने आनन-फानन में ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदल दिया और उसमें जगह पाने के लिए लोग दौड़ पड़े. दुनिया की बेहतर प्रशासनिक व्यवस्थाओं में अधिकारियों का कल्पनाशील और अनुमानशील होना जरूरी माना जाता है. लेकिन भारतीय प्रशासनिक ढांचे में इस कल्पनाशीलता की अक्सर कमी नजर आती है. उसमें भावी संकटों और समस्याओं का अनुमान लगाने के लिए जरूरी सोच की कमी है.
वह किसी समस्या का अंदाजा लगाकर उसे शुरू में रोकने और व्यवस्थित करने की बजाय आखिरी छोर पर निपटने की सोच से लगातार लैस रहता है. मेले-ठेले में जाने वाले लोगों की भीड़ को मेले में घुसने से पहले व्यवस्थित करने और उसे रोकने में भारतीय प्रशासनिक तंत्र की दिलचस्पी कम होती है, लेकिन जब मेले में भीड़ बढ़ जाती है, तब मेले वाली जगह के दरवाजे पर वह अचानक से रोक लगा देता है. दरवाजे पर भीड़ को रोकने से मेले में भीड़ भले ही न घुसे, लेकिन पीछे से आ रहे रेले पर रोक नहीं लग पाती. फिर रेला लोगों को धकियाते आगे बढ़ने लगता है.
भगदड़ के बारे में एक अवधारणा रही है कि गरीब-गुरबा और अशिक्षित लोग ही इसके शिकार बनते हैं. यह अधूरा सच है. यह सच है कि उत्तर भारत के मंदिरों में दर्शनार्थियों की भीड़ में ज्यादातर निम्न मध्यम वर्ग के लोग होते हैं. उत्तर भारत में मंदिरों तक में वीआइपी संस्कृति का बोलबाला है. इसकी तुलना में दक्षिण भारतीय मंदिरों में वीआइपी संस्कृति कुछ कम है. इसलिए उत्तर के मंदिरों और धार्मिक मेले-ठेले में अनुशासनहीन भीड़ की बहुलता होती है. चूंकि प्रशासनिक तंत्र कल्पनाशीलता से उन्हें व्यवस्थित नहीं कर पाता, लिहाजा भगदड़ की दुर्भाग्यजनक घटनाएं हो जाती हैं.
इसमें दो राय नहीं कि भारत की एक बड़ी समस्या उसकी बड़ी जनसंख्या भी है. देश की एक और बड़ी समस्या यह है कि भीड़ को अनुशासित करने का संस्कार और शिक्षण पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर नहीं है. इसकी वजह से मौका पाते ही हर व्यक्ति रसूख के साथ भीड़ से निकलना चाहता है या फिर अपना वर्चस्ववादी स्वभाव दिखाना चाहता है. कई बार पिछड़ती हुई भीड़ अपना आपा भी खो देती है. भारत का एक बड़ा हिस्सा अरसे तक चूंकि गरीबी की मार झेलता रहा है, इसलिए उसके अवचेतन में कुछ पाने की चाह में दूसरों को पीछे छोड़ने की सोच हावी रहती है. इसमें यदि अफवाह मिल जाती है, तो हालात भयावह हो जाते हैं.
सवाल है कि क्या ऐसी व्यवस्था नहीं बनायी जा सकती कि देश के भीड़भाड़ वाले आयोजन बिना किसी भगदड़ या अव्यवस्था के संपन्न हो सकें. इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक मुकम्मल नीति बनाने और उसे कड़ाई से लागू करने की जरूरत है. आज के दौर की हर कठिन राह को तकनीक ने आसान किया है. ऐसे में नीतिगत स्तर पर प्रशासनिक तंत्र को प्रशिक्षित करना होगा कि तकनीक के इस्तेमाल से वे ठीक से पता लगा पायें कि किस बिंदु पर भीड़ को रोका जाना चाहिए, कहां बैरिकेडिंग कर भीड़ को नियंत्रित किया जाना चाहिए. इसके साथ ही, प्रशासनिक तंत्र की सोच में कल्पनाशीलता को बढ़ावा देने के लिए भी उसे तैयार करना होगा. प्रशासनिक तंत्र समस्याओं का अनुमान लगाने वाला मानस विकसित कर सके, इसके लिए भी जरूरी इंतजाम करना होगा. वहीं भीड़ को अनुशासित करने के लिए दो स्तरों पर काम करना होगा. स्कूली स्तर से ही इस दिशा में शिक्षा और संस्कार देना होगा. साथ ही, आम लोगों को पीछे छोड़ने या किनारे रखने वाली वीआइपी संस्कृति पर पूरी तरह रोक लगाना भी इस दिशा में जरूरी कदम होना चाहिए. इसके साथ ही अफवाहों पर लगाम लगाने के मुकम्मल इंतजाम भी होने चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)