भाजपा के लिए बंगाल बड़ी चुनौती

अब देखना यह है कि भाजपा इतनी बड़ी कवायद में कामयाब होती है या नहीं तथा क्या वाजपेयी और आडवाणी का बहुत पुराना सपना 2021 के इस चुनाव में पूरा होगा या नहीं.

By जयंत घोषाल | April 27, 2021 7:44 AM
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अस्सी के दशक में भाजपा की राष्ट्रीय समिति की बैठक अलग-अलग शहरों में होती थी. बैठक के लिए पार्टी की तरफ से ट्रेन का एक डिब्बा भाड़े पर लिया जाता था, जिसमें राजनेता और मीडियाकर्मी साथ सफर करते थे. एक बार कालका मेल से हम लोग ऐसी बैठक के लिए कोलकाता जा रहे थे. हमारे साथ अटल बिहारी वाजपेयी भी थे. उस यात्रा में मैंने कोलकाता के एक अखबार के लिए इंटरव्यू लिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारा सपना तब पूरा होगा, जब भाजपा पश्चिम बंगाल में सत्ता में आयेगी क्योंकि पश्चिम बंगाल श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्मस्थान है.

वाजपेयी उनके निजी सचिव रह चुके थे. वाजपेयी का कहना था कि हमारी पार्टी के राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए पश्चिम बंगाल में जीतना जरूरी है, जैसा लेफ्ट का है. साल 1984 में जब मैंने पत्रकारिता की शुरुआत कोलकाता में की थी, बड़ा बाजार में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कारोबारी समर्थक के घर भाजपा के तत्कालीन उपाध्यक्ष केदारनाथ साहनी आये थे.

उस बैठक में उन्होंने समझाया था कि कश्मीर का मुद्दा सिर्फ कश्मीर और उत्तर भारत का नहीं है, बल्कि इसे बंगाल में भी उठाना चाहिए क्योंकि श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ भी यह मुद्दा जुड़ा हुआ है. लालकृष्ण आडवाणी ने गोविंदाचार्य को बंगाल का प्रभारी बनाया था.

वाजपेयी और आडवाणी अपनी विचारधारा की बहुत सारी चीजें पूरी नहीं कर सके. तब भाजपा का बहुमत नहीं था और ममता बनर्जी गठबंधन का हिस्सा थीं. तब और अब में बहुत अंतर है. वाजपेयी और आडवाणी का सपना नरेंद्र मोदी साकार कर रहे हैं. एक तो मोदी के पास बहुमत है, दूसरा, उनमें प्रतिबद्धता और उद्देश्यपरकता है. उन्हें अमित शाह जैसे योग्य सेनापति भी मिले हैं.

आज ममता बनर्जी उन्हें टक्कर दे रही हैं, परंतु उनके पास कोई अमित शाह नहीं है. जब तक मुकुल रॉय थे, तब तक वे रणनीतिक भूमिका निभाते थे. इस समय मोदी-शाह की जोड़ी अपने नये नैरेटिव से नयी दिशा दिखा रही है. यह उचित है या अनुचित है, उस पर बहस हो सकती है. अमित शाह बार-बार कहते हैं कि उनका काम है ममता को पश्चिम बंगाल सरकार से बाहर निकालना.

एक इंटरव्यू में अमित शाह ने कहा है कि ममता बनर्जी ने वाम मोर्चे को सत्ता से बाहर निकाला, वह कोई और नहीं कर सकता था, इसलिए मैं उनकी इज्जत करता हूं. लेकिन दस साल बाद ममता बनर्जी अपने आश्वासन, आशा और सपने को पूरा नहीं कर पायीं तथा भ्रष्टाचार, तोलाबाजी सिंिडकेट और नेपोटिज्म आदि आ गया. इसलिए भाजपा बंगाल में परिवर्तन चाहती है.

तो नैरेटिव बहुत स्पष्ट है. पश्चिम बंगाल के इतिहास में सांप्रदायिकता बहुत पहले से रही है, स्वाधीनता से पहले से. विभाजन के बाद मध्य व उच्च वर्ग के मुस्लिम और बहुत से नेता पूर्वी पाकिस्तान चले गये. यहां जो मुस्लिम समाज के लोग बचे, वे मुख्यतः किसान थे. उस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पश्चिम बंगाल की अलग पहचान की मांग उठायी थी. उस समय शरणार्थी मुद्दा बहुत गंभीर था. यह कांग्रेस का भी बड़ा मुद्दा था.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस समय नेहरू कैबिनेट में थे. बहुत लोगों को याद नहीं है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल में भी फजलुल हक सरकार में कुछ दिनों के लिए वित्त मंत्री थे. राज्य में अंतिम दंगा 1962 में हुआ था और उसके बाद धीरे-धीरे सद्भावना आ गयी. बंगाल में 800 साल के मुस्लिम शासन का इतिहास भी है. बौद्ध धर्म के प्रभाव का इतिहास भी है. इसीलिए बंगाली पहचान उत्तर भारत की तरह नहीं है.

भाजपा स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण, बंकिमचंद्र चटर्जी आदि के हिंदुत्व के तत्वों को पहचान कर बंगाल का एक नया नैरेटिव ला रही है कि इसे बंगाल को स्वीकार करना चाहिए. यह बंगाली हिंदू का रूप वाजपेयी के समय से ही था. इस पृष्ठभूमि को समझने से यह पता चलेगा कि क्यों पश्चिम बंगाल में भाजपा के प्रति एक आकर्षण बंगाल के भद्र लोक समुदाय में पैदा हो रहा है.

भाजपा ने आज मुख्य प्रतिपक्ष का स्थान ले लिया है. यह उसकी सफलता है. लेकिन मैं यही कहूंगा कि यह सिर्फ हिंदू-मुस्लिम आधार पर ध्रुवीकरण नहीं है. आज भाजपा की रणनीति के पीछे सबसे बड़ा कारक मोदी हैं. भाजपा एक नयी बंगाली पहचान को स्थापित करने की कोशिश कर रही है. इसके साथ, 10 साल के शासन के नकारात्मक पक्षों और भ्रष्टाचार की चर्चा करते हुए भाजपा डबल इंजन सिद्धांत को आगे रख रही है कि उसके सरकार में आने से राज्य में उद्योग लगेगा, निवेश आयेगा, बेरोजगारी और गरीबी दूर होगी.

मुझे नहीं लगता है कि भाजपा सत्ता में आयेगी और एक दिन में ही पूरा गजब हो जायेगा. हो सकता है कि एक-दो उद्योगपति कुछ घोषणा करेंगे. लेकिन अभी तक बंगाल निवेश आकर्षित करने लायक नहीं हुआ है, उसका भी तो कुछ कारण होगा. मामला केवल राजनीतिक परिवर्तन का नहीं है, कार्य से संबंधित सांस्कृतिक परिवर्तन का भी है.

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