हिंदी दिवस पर पढ़ें राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव का यह खास आलेख- हिंदी पखवाड़े के ढकोसले…

Hindi Diwas 2024 : बच्चों को हिंदी पढ़ने-बोलने के उपदेश मत दीजिए, उनके लिए ऐसी कहानियां लिखिए कि उन्हें हिंदी का चस्का लग जाए.

By योगेंद्र यादव | September 13, 2024 6:55 AM
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Hindi Diwas 2024 : हिंदी प्रेमी होने के नाते 14 सितंबर को हिंदीभाषी और हिंदी के शुभचिंतक गण से अपना पुराना आग्रह दोहराना चाहूंगा: कृपया हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़े के ढकोसले को बंद कर दीजिए. साल में एक बार हिंदी की आरती उतारने के बजाय 365 दिन हिंदी का इस्तेमाल कीजिए. राष्ट्रभाषा का नकली दावा और राजभाषा की सरकारी धौंस छोड़कर हिंदी को अपने तरीके से फलने-फूलने दीजिए. दफ्तरों और अफसरों को हिंदी अपनाने का आदेश भर मत दीजिए, सरकारी कामकाज के लिए ऐसी हिंदी गढ़िए, जिसे बिना अनुवाद के समझा जा सके.

बच्चों को हिंदी का चस्का लगा दें

बच्चों को हिंदी पढ़ने-बोलने के उपदेश मत दीजिए, उनके लिए ऐसी कहानियां लिखिए कि उन्हें हिंदी का चस्का लग जाए. भाषाओं के संसार में हिंदी की स्थिति अन्य भाषाओं से अलग है. यह लगातार फैल रही है और साथ-साथ सिकुड़ती भी जा रही है. इसे बोलने-समझने वालों की संख्या और उनके भूगोल का लगातार विस्तार हो रहा है. लेकिन इसका उपयोग लगातार सिमटता जा रहा है, भाषा गहरी होने के बजाय छिछली होती जा रही है. अगर अंग्रेजी ज्वालामुखी के गाढ़े लावे की तरह पूरी दुनिया को ढक रही है, तो हिंदी तालाब में पानी पर बिछी काई की पतली सी परत की तरह धीरे-धीरे फैल रही है.

सेतु का काम करती है हिंदी


वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में 43 प्रतिशत लोग हिंदी (या भोजपुरी और मारवाड़ी जैसी किसी ‘उपभाषा’) को अपनी मातृभाषा बताते हैं. अगर इसमें उन लोगों की संख्या जोड़ दे जाए, जो अपनी दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में हिंदी का जिक्र करते हैं, तो यह आंकड़ा 57 प्रतिशत था. यह आंकड़ा हर दशक में बढ़ा है और अगली जनगणना तक 60 प्रतिशत के पार जाने की संभावना है. हिंदी भाषा के इस प्रसार का असली काम सरकारी राजभाषा तंत्र ने नहीं, बल्कि हिंदी सिनेमा, गीत, टीवी सीरियल और क्रिकेट कमेंटरी ने किया है. टीवी की दुनिया में हिंदी का जो स्थान था, वो सोशल मीडिया आने के बाद भी कमोबेश जारी है. यही नहीं, धीरे-धीरे हिंदी गैर-हिंदी भाषियों के बीच सेतु का काम करने लगी है. पहले यह सेना और रेलवे जैसी अखिल भारतीय सेवाओं में होता था, मगर अब इसे राष्ट्रीय स्तर पर भर्ती करने वाले कॉलेज और यूनिवर्सिटी के युवाओं में भी देखा जा सकता है.

राजनीतिक संवाद की भाषा के रूप में भी हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ी

राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक संवाद की भाषा के रूप में भी हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ी है. हिंदी का संकट विस्तार का नहीं, गहराई का है. हिंदी को ज्यादा लोग अपना रहे हैं, लेकिन सिर्फ बोलचाल की भाषा के रूप में. जैसे किसान का बेटा गांव छोड़ने को लालायित रहता है, उसी तरह हिंदी को मातृभाषा बताने वाला भी अपनी हिंदी से पिंड छुड़ाने के चक्कर में रहता है, हिंदी की किताब या पत्रिका को घर में रखने से झेंपता है. टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझता है, हिंदी मजबूरी में बोलता है. घर में हिंदी बोलता भी है तो ‘मम्मी, मेरे होमवर्क को फिनिश करने में प्लीज मेरी हेल्प कर दो’ वाली भाषा बोलता है. अभिजात्य वर्ग के लोग अगर हिंदी बोलते हैं तो सिर्फ ड्राइवर, चौकीदार या बाई से, या फिर नानी-दादी से.
इसलिए अपने अभूतपूर्व विस्तार के बावजूद हिंदी पहले से हल्की होती जा रही है. हिंदी साहित्य कमजोर नहीं हुआ है, चूंकि भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए अब भी हिंदी का सहारा लेना पड़ता है. लेकिन भाषा ज्ञान कमजोर हुआ है. हिंदी पट्टी के स्नातक हिंदी की वर्तनी ठीक से नहीं लिख पाते. हिंदी भाषी डॉक्टर, इंजीनियर और मैनेजर हिंदी में एक पन्ना भी नहीं लिख सकते. बचपन की याद और दोस्तों के बीच चुटकुले सुनाने के लिए हिंदी बची है, लेकिन देश और दुनिया की चिंता की भाषा हिंदी नहीं है.

हिंदी बोल कर अच्छे पैकेज वाली नौकरी नहीं मिल सकती

एक भारतीय वैज्ञानिक के लिए यह कल्पना करना भी कठिन है कि जापान और कोरिया की तरह ज्ञान-विज्ञान और तकनीक की शिक्षा अंग्रेजी को छोड़कर हिंदी में दी जा सकती है. हिंदी में अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन की डिग्री तो मिल जाती है, लेकिन इन विषयों पर मौलिक शोध नहीं होता. हिंदी बोल कर अच्छे पैकेज वाली नौकरी नहीं मिल सकती. सरकारी संघ लोक सेवा आयोग ने भी हिंदी मीडियम वालों को छांटने का पुख्ता इंतजाम किया हुआ है. अपने वर्चस्व के बावजूद हिंदी बेचारी है. संख्या बल के बावजूद बेचारगी का यह एहसास कुंठा और हीनताबोध को जन्म देता है. उससे पैदा होती है एक खोखली आक्रामकता. अंग्रेजी की दासी होने की भरपाई हिंदी अपनी ही बोलियों की सौतेली मां और अन्य भारतीय भाषाओं की सास बनकर करती है, राष्ट्रभाषा होने का दावा करती है, अपनी ही बोलियों को ‘अशुद्ध हिंदी’ करार देती है. हिंदी जितना रौब जमाने की कोशिश करती है, उसकी कमजोरी उतना ही उजागर होती जाती है.

हिंदी को समृद्ध बनायें

आइए, इस हिंदी दिवस पर संकल्प लें कि हम इस सरकारी ढकोसले में हिस्सा नहीं लेंगे. ना हिंदी का स्यापा करेंगे, ना ही उसकी गर्वोक्ति. हिंदी को अंग्रेजी के समकक्ष दर्जा दिलाने के लिए सिर्फ सरकारी फरमानों का सहारा नहीं लेंगे. हम हिंदी को समृद्ध बनायेंगे. हिंदी में बाल साहित्य लिखेंगे, किशोरों के लिए ग्राफिक उपन्यास तैयार करेंगे, हर विषय में विश्वस्तरीय पाठ्यपुस्तक छापेंगे, ज्ञान-विज्ञान की तकनीकी शब्दावली गढ़ेंगे और दुनियाभर की किताबों का सटीक अनुवाद करायेंगे. हिंदी को उसका स्थान दिलाने के लिए अन्य भारतीय भाषाओं से बैर नहीं पालेंगे, हिंदी में समायी अनेक भाषाओं का वजूद नहीं मिटायेंगे. हिंदी को इस काबिल बनायेंगे कि वह मां की तरह अपनी ‘उपभाषाओं’ का पालन पोषण करे, आयु में अपने से बड़ी अन्य भारतीय भाषाओं को बड़ी बहन सा सम्मान दे, भाषाओं के बीच सेतु बनाने के लिए खुद बिछने को तैयार रहे. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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