पानी को हथियार बनाने की चीनी कोशिश

China : चीन द्वारा यारलुंग त्सांगपो पर बनाये जा रहे दुनिया के सबसे बड़े बांध की योजना अब केवल पर्यावरणीय चिंता नहीं रही, बल्कि यह रणनीतिक चेतावनी बन चुकी है. यह बांध 60,000 मेगावाट की बिजली उत्पादन क्षमता के साथ हिमालय के बेहद संवेदनशील भूकंपीय क्षेत्र में बनाया जा रहा है.

By आनंद कुमार | July 16, 2025 5:50 AM
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China : हाल के वर्षों में चीन ने अरुणाचल प्रदेश को लेकर अपने आक्रामक रुख को केवल सीमाई दावों तक सीमित नहीं रखा है, बल्कि अब यह सांस्कृतिक, धार्मिक, पर्यावरणीय और रणनीतिक क्षेत्रों तक भी फैल गया है. हाल ही में अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने जिस चिंता को सबसे अधिक उठाया है, वह तिब्बत के दूरस्थ इलाके में स्थित यारलुंग त्सांगपो नदी (भारत में ब्रह्मपुत्र) पर चीन द्वारा बनाये जा रहे विशाल बांध को लेकर है. उन्होंने इस प्रस्तावित बांध को ‘टिक-टिक करता हुआ जल बम’ बताया है, जो आने वाले दिनों में भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए गंभीर खतरा बन सकता है. अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू द्वारा इस संबंध में बार-बार की गयी टिप्पणियां इस ओर इशारा करती हैं कि यह केवल एक पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि चीन की एक नयी रणनीतिक चाल भी हो सकती है.


इस मुद्दे को भलीभांति समझने के लिए इसके भू-राजनीतिक और ऐतिहासिक संदर्भ को समझना आवश्यक है. चीन लगातार अरुणाचल प्रदेश पर अपना अवैध दावा करता रहा है, जिसे वह ‘दक्षिण तिब्बत’ कहता है. जबकि भारत स्वाभाविक ही बार-बार उसका झूठा दावा खारिज करता आया है. मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने स्पष्ट रूप से कहा है कि भारत की सीमा कभी भी चीन से नहीं लगी थी, बल्कि वह तिब्बत से लगी थी. उनका यह कथन केवल भूगोल नहीं, बल्कि इतिहास और जनचेतना का भी प्रतिनिधित्व करता है. वर्ष 1950 में तिब्बत पर चीन के बलपूर्वक कब्जे ने क्षेत्रीय संतुलन को बदल दिया और चीन को एक ऐसा पड़ोसी बना दिया, जिसकी उपस्थिति ऐतिहासिक रूप से अरुणाचल की सीमा से कभी नहीं रही.


चीन द्वारा यारलुंग त्सांगपो पर बनाये जा रहे दुनिया के सबसे बड़े बांध की योजना अब केवल पर्यावरणीय चिंता नहीं रही, बल्कि यह रणनीतिक चेतावनी बन चुकी है. यह बांध 60,000 मेगावाट की बिजली उत्पादन क्षमता के साथ हिमालय के बेहद संवेदनशील भूकंपीय क्षेत्र में बनाया जा रहा है. पिछले साल दिसंबर में चीन ने इस बांध निर्माण को मंजूरी दी. इस बांध के जरिये चीन जलविद्युत का उत्पादन बढ़ायेगा. इससे बिजली उत्पादन के लिए कोयले पर निर्भरता घटाने के चीन के प्रयासों में कमी आयेगी. हालांकि इसके निर्माण में कई साल लगेंगे, लेकिन प्रस्तावित नये बांध से चीन तीन गुना अधिक जलविद्युत का उत्पादन कर सकेगा.

बताया यह भी जा रहा है कि दुनिया में अधिकांश देशों के पास इतनी बड़ी मात्रा में बिजली उत्पादन करने की क्षमता नहीं है. लेकिन उससे भी गंभीर बात यह है कि चीन किसी भी अंतरराष्ट्रीय जल-साझाकरण संधि का हिस्सा नहीं है. इसका मतलब यह है कि न तो भारत और न ही बांग्लादेश के पास चीन को पारदर्शिता या जल-प्रवाह की पूर्व सूचना देने के लिए बाध्य करने का कोई कानूनी रास्ता है. भारत ने नदी के पानी को लेकर बांग्लादेश, भूटान और पाकिस्तान के साथ समझौते कर रखे हैं. लेकिन चीन ने दूसरे देशों से बात किये बगैर ही बांध बनाने का फैसला कर लिया है. हिमालयी क्षेत्र में अक्सर भूकंप आते रहते हैं. जिस नदी पर यह बांध बन रहा है, वह चीन से निकलने के बाद दूसरे देशों में भी बहती है. उन देशों को इस प्रस्तावित बांध से स्वाभाविक ही चिंता हो रही है. इस बांध का निर्माण अभी शुरू नहीं हुआ है, लेकिन भारत ने इस बारे में चीन को अपनी चिंता से अवगत करा दिया है.


अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री खांडू की चेतावनी बिल्कुल उचित है. अगर चीन अपनी मंशा में कामयाब हो जाये, फिर भविष्य में वह चाहे, तो सूखे या सर्दियों में ब्रह्मपुत्र के पानी को रोक सकता है, जिससे अरुणाचल और असम की नदियां सूख सकती हैं, जिसका कृषि, पारिस्थितिकी और जनजीवन पर गंभीर असर पड़ेगा. असम में चाय के बागान इस पानी पर निर्भर हैं. वहीं बरसात के मौसम में चीन द्वारा अचानक पानी छोड़ने से अपने यहां भयंकर बाढ़ आ सकती है, जिससे जनहानि, फसलों का नुकसान और बुनियादी ढांचे को भारी क्षति हो सकती है. वैसी स्थिति में खासकर आदिवासी समुदाय के लोग सबसे अधिक प्रभावित होंगे, जिनका जीवन इन नदियों पर ही निर्भर है. इस खतरे का जवाब देने के लिए अरुणाचल प्रदेश सरकार ने केंद्र सरकार के साथ मिलकर सियांग अपर मल्टीपरपज प्रोजेक्ट की योजना बनायी है. यह परियोजना पानी के भंडारण और बाढ़ नियंत्रण के लिए एक रक्षात्मक उपाय के रूप में देखी जा रही है.

बेशक यह जरूरी कदम है, लेकिन यह केवल एक प्रतिक्रियात्मक उपाय ही है. भारत को इस चुनौती का कूटनीतिक, रणनीतिक और बहुपक्षीय स्तर पर जवाब देना होगा. इसके लिए बांग्लादेश और म्यांमार जैसे डाउनस्ट्रीम देशों के साथ मिलकर क्षेत्रीय जल-संविधान की पहल की जानी चाहिए ताकि चीन पर सामूहिक दबाव बनाया जा सके. मुख्यमंत्री खांडू ने यह भी रेखांकित किया कि तिब्बत को एशिया का ‘वाटर टावर’ कहा जाता है, क्योंकि यहीं से भारत सहित एशिया की कई प्रमुख नदियों का उद्गम होता है. चीन द्वारा तिब्बत के पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन न केवल तिब्बत, बल्कि भारत, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश जैसे देशों के लिए भी गंभीर खतरा है. भारत को, जो इन नदियों पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर है, इस दिशा में वैश्विक पर्यावरण संरक्षण प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए.

भारत और तिब्बत के बीच ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध हैं, जो आठवीं शताब्दी में नालंदा विश्वविद्यालय के उत्कर्ष काल से चले आ रहे हैं. बौद्ध दर्शन और तर्कशास्त्र का केंद्र रहे नालंदा ने तिब्बती बौद्ध मत पर गहरा प्रभाव डाला है. यह संबंध केवल सांस्कृतिक नहीं, बल्कि सभ्यतागत है और आज भी अरुणाचल प्रदेश में जीवित है.


पेमा खांडू की आवाज केवल एक सीमावर्ती राज्य के मुख्यमंत्री की चेतावनी नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रीय चेतावनी है. यह हमें याद दिलाती है कि चीन से उत्पन्न खतरे केवल सीमाई संघर्षों तक सीमित नहीं हैं. जल, धर्म, पर्यावरण और भू-राजनीतिक प्रभावों के माध्यम से चीन भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र पर बहुआयामी दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है. भारत को चाहिए कि वह इस खतरे का बहुपक्षीय और दीर्घकालिक समाधान निकाले. न केवल बुनियादी ढांचे को मजबूत किया जाये, बल्कि सांस्कृतिक और कूटनीतिक स्तर पर भी चीन की हरकतों का विरोध किया जाये. अरुणाचल प्रदेश की चेतावनी को नयी दिल्ली को गंभीरता से लेना चाहिए, क्योंकि ब्रह्मपुत्र का पानी अब केवल जीवनदायिनी नहीं, बल्कि संभावित रूप से विनाशकारी भी बन सकता है, यदि इसे हथियार बना लिया जाता है तो.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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