मुफ्त की रेवड़ियों के खिलाफ अदालत, पढ़ें नीरजा चौधरी का खास आलेख

Freebies : यह पहली बार नहीं है, जब सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त सुविधाओं को लेकर केंद्र सरकार की खिंचाई की है. पिछले साल शीर्ष अदालत ने केंद्र और चुनाव आयोग से चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा फ्रीबीज या मुफ्त सुविधायें देने की प्रथा को चुनौती देने वाली याचिका पर जवाब देने के लिए कहा था.

By नीरजा चौधरी | February 17, 2025 7:20 AM
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Freebies : सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में चुनावों से पहले दी जाने वाली मुफ्त की रेवड़ियों की जिस तरह आलोचना की है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए. शीर्ष अदालत में दो न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि लोग काम करने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि उन्हें मुफ्त में राशन और पैसे मिल रहे हैं. अदालत द्वारा यह टिप्पणी तब की गयी, जब अटॉर्नी जनरल ने कहा कि सरकार को न्यायिक अधिकारियों के वेतन और सेवानिवृत्ति लाभ तय करते समय वित्तीय बाधाओं पर विचार करना होगा. इस पर अदालत ने कहा कि राज्य सरकारें उन लोगों के लिए पैसे खर्च कर रही हैं, जो कुछ नहीं करते, लेकिन जब न्यायिक अधिकारियों के वेतन और उनकी पेंशन की बात आती है, तो वित्तीय संकट का बहाना किया जाता है. पीठ ने अटॉर्नी जनरल के जरिये सरकार से पूछा कि मुफ्त की योजनायें लागू करके आप परजीवियों की जमात नहीं खड़ी कर रहे?


यह पहली बार नहीं है, जब सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त सुविधाओं को लेकर केंद्र सरकार की खिंचाई की है. पिछले साल शीर्ष अदालत ने केंद्र और चुनाव आयोग से चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा फ्रीबीज या मुफ्त सुविधायें देने की प्रथा को चुनौती देने वाली याचिका पर जवाब देने के लिए कहा था. हाल के दौर में राजनीतिक दलों ने वोट हासिल करने के लिए मुफ्त की योजनाओं और आर्थिक लाभ देने पर बहुत अधिक भरोसा किया है. जबकि इनसे अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ता है. रिजर्व बैंक ने विगत दिसंबर में जारी अपनी रिपोर्ट में भी फ्रीबीज पर चिंता जताते हुए कहा है कि कई राज्यों ने चालू वित्त वर्ष के अपने बजट में कृषि ऋण माफी, कृषि और घर को मुफ्त बिजली, मुफ्त परिवहन, बेरोजगारी भत्ता और नकद सहायता देने की घोषणायें की हैं. इस तरह के खर्चों से उनके पास अपने उपलब्ध संसाधन खत्म हो सकते हैं और आर्थिक बुनियादी ढांचे के निर्माण की उनकी क्षमता बाधित हो सकता है.


लेकिन इस सबसे बेपरवाह हर राजनीतिक पार्टी चुनाव के समय मतदाताओं को मुफ्त सुविधा देने का वादा करती है. हाल के चुनावों में हमने राजनीतिक पार्टियों द्वारा मुफ्त सुविधा देने के वादे करते देखा. दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा, आप और कांग्रेस ने मतदाताओं से मुफ्त सुविधाओं के वादे किये थे. चुनावों में प्रधानमंत्री की अपनी गारंटी की बात होती है. मतदाताओं को मुफ्त सुविधायें देने का असर यह हुआ है कि देश भर में महिलाओं का अलग वोट बैंक बन चुका है. महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव से पहले घूमते हुए मैंने महिला मतदाताओं से जब उनकी राय पूछी थी, तब उनका कहना था कि हमारे पति अगर कांग्रेस को वोट देते हैं, तो भी हम एकनाथ शिंदे को वोट देंगी, क्योंकि उन्होंने हमारे हित में वादे किये हैं.


मैं पर यहां दो बातें कहना चाहूंगी. एक यह कि फ्रीबीज पर अंकुश लगाने का काम आसान नहीं. तब तो और नहीं, जब अभी तक इसकी सर्वमान्य परिभाषा तय नहीं की गयी है. दूसरा, खासकर महिलाओं को जो आर्थिक लाभ दिये जा रहे हैं, वे बेहद उपयोगी साबित हुए हैं. महाराष्ट्र में अनेक महिलाओं ने मुझसे कहा कि सरकार उन्हें जो पैसे देती है, उससे उन्होंने छोटा-मोटा कारोबार शुरू किया है. कई दलित महिलाओं ने बताया कि सरकारी पैसे से उन्होंने सब्जियों का ठेला शुरू किया है. यानी मुफ्त लाभ महिलाओं को आत्मनिर्भर बना रहा है.

दिल्ली में महिलाओं के लिए बस यात्रा मुफ्त होने का लाभ यह हुआ है कि घरों में काम करने वाली अनेक महिलायें लाल किला और इंडिया गेट घूमने जा पा रही हैं. ऐसा वह पहले नहीं कर पाती थीं. इससे फौरी तौर पर ऐसा लगता है कि सरकारों का विकास मॉडल विफल वर्षों पहले विफल हो चुका है. समाज के कमजोर वर्ग की महिलाओं की आत्मनिर्भरता ही तो हमारे लोकतंत्र का लक्ष्य थी. चुनाव जीतने के लिए महिलाओं को पैसे दिये जाने की शुरुआत हुई, तो इससे वे आत्मनिर्भर होने लगीं. लिहाजा इन पर अंकुश लगाने का जोखिम शायद ही राजनीतिक पार्टियां उठायें.


जब मुफ्त रेवड़ी क्या है, अभी इसकी परिभाषा ही तय नहीं है, तब इस पर अंकुश लगाया जाये भी, तो कैसे? जुलाई, 2022 में यह मुद्दा जब सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा था. तब प्रधान न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने इसे लेकर लंबी सुनवाई की थी. पर मामला संवैधानिक हो जाने और उनके रिटायर होने से यह मामला टलता रहा. वर्ष 2022 में ही चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर कहा था कि फ्रीबीज की कोई परिभाषा उसके पास नहीं है, इसलिए वह इस पर रोक लगाने में अक्षम है. तब आयोग ने शीर्ष अदालत से ही इसकी परिभाषा तय करने के लिए कहा था. तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ने चुनाव आयोग के इस रुख पर नाराजगी जतायी थी. अक्तूबर, 2024 में इस पर सुनवाई के दौरान अदालत ने केंद्र सरकार से इस पर विस्तृत हलफनामा दाखिल करने के लिए कहा था. पर केंद्र ने अभी तक शपथपत्र दायर नहीं किया है.


राजनीतिक पार्टियों द्वारा सब कुछ मुफ्त देने के वादे करना बहुत आसान है, लेकिन उन पर अमल करना मुश्किल है. सभी पार्टियां वादा निभा पाती हों, ऐसा भी नहीं है. पंजाब में आप और कर्नाटक में कांग्रेस संसाधनों के अभाव में बहुत सारे चुनावे वादों पर अमल नहीं कर पायी हैं. दिल्ली में मतदाताओं ने भाजपा को इसलिए जिताया, क्योंकि उन्हें लग गया था कि केजरीवाल जीत भी गये, तो वादे पूरे नहीं कर पायेंगे. यानी मुफ्त सुविधाओं की राजनीति में वही भारी पड़ेगा, जिसके पास संसाधन ज्यादा हों. इस मामले में फिलहाल भाजपा दूसरी तमाम पार्टियों पर भारी पड़ती दिखायी देती है. यानी यहां लेवल प्लेइंग फील्ड नहीं है, जो जरूर एक चिंताजनक बात है.


ऐसे में, चुनाव से पहले मुफ्त सुविधाओं के वादे करने के मामले में कोई न कोई मानक तो तय करना होगा. चूंकि मुफ्त सुविधायें चुनाव से जुड़ी हैं, ऐसे में, इस पर दिशा-निर्देश तय करना चुनाव आयोग का काम है. लेकिन इस मुद्दे पर उसने कुछ किया नहीं. ऐसे में, राजनीतिक पार्टियों को सर्वसम्मति से इसका कोई हल निकालना चाहिए. पर अव्वल तो मुफ्त सुविधाओं की राजनीति का कोई दल विरोध नहीं करता. तिस पर आज का जो असहिष्णु राजनीतिक माहौल है, उसमें इस मुद्दे पर तमाम पार्टियों के साथ एक साथ होने की उम्मीद दूर-दूर तक नहीं है. यानी अदालत द्वारा फ्रीबीज की परिभाषा तय न करने तक चुनावी राजनीति की कीमत देश की अर्थव्यवस्था को चुकानी ही पड़ेगी.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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