गांव के बदलते स्वरूप पर प्रणय प्रसून वाजपेयी की कविता

यह हमारे गांव की कहानी है. कमोबेश यही भारत के गांव की कहानी बनती जा रही है. गांवों का चेहरा किस कदर विद्रूप हुआ है, यहां इसकी बात की गयी है. और इस ओर से हम बेखबर बने हुए हैं. गांव को अपने हाल पर छोड़ दिया है. दूसरी ओर डिजिटल भारत बन रहा है. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 5, 2017 3:55 PM
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यह हमारे गांव की कहानी है. कमोबेश यही भारत के गांव की कहानी बनती जा रही है. गांवों का चेहरा किस कदर विद्रूप हुआ है, यहां इसकी बात की गयी है. और इस ओर से हम बेखबर बने हुए हैं. गांव को अपने हाल पर छोड़ दिया है. दूसरी ओर डिजिटल भारत बन रहा है. हम विकास-विकास खेल रहे हैं. कंक्रीट के बनते मकानों के बीच हमारा गांव गुम हो गया है.

एक आदमी,एक गांव को जिंदा रहने के लिए जो चीजें चाहिए होता है, अब वह ही नहीं रहा. गांव से गवंईपन गायब है. आपसी प्रेम-भाईचारा मिट गया है. चौपाल का रिवाज ख़त्म हो रहा है. आपसी सहमति-असहमति के लिए कोई स्पेस नहीं है. यहां भी लोग भाग-दौड़ रहे हैं. जाहिर सी बात है, अब गांव पहले जैसा नहीं रहा. रहना भी नहीं चाहिए. पर इस दौर में गांव से जीवन भी तो समाप्त हो गया. लोग बदल रहे हैं. या कहें अपने भारत की छवि खुद-ब-खुद बिगाड़ रहे हैं. अपने आपको और देश-समाज को कमजोर बना रहे हैं.

नया ज्ञानोदय का स्त्री स्वर अंक उपलब्ध, नयी कवयित्रियों को मिला स्थान

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