जेबुन्निसा : अंतहीन इंतज़ार की एक ख़ामोश कविता

ध्रुव गुप्त का जन्म 1 सितंबर, 1950 को बिहार के गोपालगंज में हुआ. पटना में इनका स्थायी निवास है. भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी रहे हैं. कवि, ग़ज़लगो, कथाकार और फीचर लेखक. अब तक छह पुस्तकें – ‘कहीं बिल्कुल पास तुम्हारे’, ‘जंगल जहां ख़त्म होता है’, ‘मौसम जो कभी नहीं आता’ (कविता संग्रह), ‘मुठभेड़’ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 14, 2017 10:52 AM
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चाचा दारा की हत्या और पिता की राजकाज में व्यस्तता के बाद उसने अपना सारा समय अदब को देना शुरू कर दिया. औरंगज़ेब के कठोर अनुशासन की वजह से दरबार में अदबी महफ़िलों की कोई गुंजाइश नहीं थी, इसीलिए शायरी की बारीकियां बताने वाला कोई उस्ताद उसे नहीं मिला. उसे किसी ने शहर में अक्सर आयोजित होने वाले मुशायरों के बारे में बताया तो वह अपना परिचय छुपाकर ‘मख्फी’ नाम से अदब की महफ़िलों में गोपनीय रूप से शिरक़त करने लगी. इन मुशायरों में शामिल होने वाले प्रमुख शायरों में उस दौर के चर्चित फ़ारसी शायर गनी कश्मीरी, नामातुल्लाह खान और अकिल खान रज़ी प्रमुख थे. अपनी रूमानी शायरी की वज़ह से जेबुन्निसा की लोकप्रियता बढ़ने लगी. मुशायरों के दौरान शायर अक़ील खां रज़ी से उसका परिचय हुआ.

रज़ी की शायरी से ही नहीं, उसके व्यक्तित्व से भी वह प्रभावित थी. उनकी अदबी मुलाक़ातें आहिस्ता-आहिस्ता व्यक्तिगत मुलाकातों में बदलीं. दोनों छिप-छिप कर मिलने लगे. उनकी मोहब्बत की चर्चा जब दरबार तक पहुंची तो कट्टर और अनुशासनप्रिय औरंगज़ेब को अपनी बेटी का यह प्रेम बिल्कुल पसंद नहीं आया. वैसे भी मुग़ल सल्तनत अपनी बेटियों के प्रति ज़रुरत से कुछ ज्यादा ही अनुदार रहा है. औरंगज़ेब ने जेबुन्निसा को दिल्ली के सलीमगढ़ किले में कैद कर दिया.

अविवाहित जेबुन्निसा की ज़िन्दगी के आखिरी बीस साल इसी सलीमगढ़ किले की तन्हाई में ही गुज़रे. क़ैद के मुश्किल और अकेले दिनों में उसकी शायरी परवान चढ़ी. प्रेम की व्यथा और अंतहीन प्रतीक्षा उसकी शायरी का मूल स्वर है. शायरी से बचे हुए वक़्त में उसने ख़ुद को मिलने वाले भत्ते से सलीमगढ़ किले में एक दुर्लभ पुस्तकालय तैयार किया. उस पुस्तकालय में कुरान, बाइबिल, हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मग्रंथ, ग्रीक पौराणिक कथायें, फारसी ग्रंथ, अल्बरूनी का यात्रा वृत्तांत, साहित्यिक और अपने पूर्वजों के बारे में लिखी गईं किताबें संग्रहित थीं. चाचा दारा शिकोह के काम को आगे बढाते हुए उसने सुंदर अक्षर लिखने वालों से कई दुर्लभ तथा बहुमूल्य, लेकिन नष्टप्राय पुस्तकों की नकल करवा कर उन्हें सुरक्षित किया.

अदब के कुछ विद्वानों को वेतन पर रख कर कुछ अरबी ग्रंथों का फ़ारसी में अनुवाद कराया. उनमें से एक ग्रन्थ है अरबी ‘तफ़सीरे कबीर’ का ‘जेबुन तफ़ासिर’ नाम से फ़ारसी में अनुवाद. अपने जीवन के आखिरी दिनों में उसने मुल्ला सैफुद्दीन अर्दबेली की सहायता से अपने दीवान ‘दीवान-ए-मख्फी’ की पांडुलिपि तैयार करायी जिसमें उनकी पांच हज़ार से ज्यादा ग़ज़लें, शेर और रुबाइयां संकलित थीं. कविताओं की उसकी इस विशाल विरासत का पता 1702 में उसकी मौत के बाद चला. बाद में फ़ारसी और अंग्रेजी के किसी विद्वान ने दीवान की पांडुलिपि पेरिस और लंदन की नेशनल लाइब्रेरियों में पहुंचा दिया जहां वे आज भी सुरक्षित हैं. साहित्यकारों की नज़र इनपर पड़ी तो धीरे-धीरे दुनिया की कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ. सैकड़ों साल बाद दिल्ली में 1929 में और तेहरान में 2001 में फ़ारसी में ही इस दीवान का प्रकाशन हुआ. प्रस्तुत है जेबुन्निसा की दो रूबाइयों का मेरे द्वारा अंग्रेजी से किया गया अनुवाद.

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