चाचा दारा की हत्या और पिता की राजकाज में व्यस्तता के बाद उसने अपना सारा समय अदब को देना शुरू कर दिया. औरंगज़ेब के कठोर अनुशासन की वजह से दरबार में अदबी महफ़िलों की कोई गुंजाइश नहीं थी, इसीलिए शायरी की बारीकियां बताने वाला कोई उस्ताद उसे नहीं मिला. उसे किसी ने शहर में अक्सर आयोजित होने वाले मुशायरों के बारे में बताया तो वह अपना परिचय छुपाकर ‘मख्फी’ नाम से अदब की महफ़िलों में गोपनीय रूप से शिरक़त करने लगी. इन मुशायरों में शामिल होने वाले प्रमुख शायरों में उस दौर के चर्चित फ़ारसी शायर गनी कश्मीरी, नामातुल्लाह खान और अकिल खान रज़ी प्रमुख थे. अपनी रूमानी शायरी की वज़ह से जेबुन्निसा की लोकप्रियता बढ़ने लगी. मुशायरों के दौरान शायर अक़ील खां रज़ी से उसका परिचय हुआ.
अदब के कुछ विद्वानों को वेतन पर रख कर कुछ अरबी ग्रंथों का फ़ारसी में अनुवाद कराया. उनमें से एक ग्रन्थ है अरबी ‘तफ़सीरे कबीर’ का ‘जेबुन तफ़ासिर’ नाम से फ़ारसी में अनुवाद. अपने जीवन के आखिरी दिनों में उसने मुल्ला सैफुद्दीन अर्दबेली की सहायता से अपने दीवान ‘दीवान-ए-मख्फी’ की पांडुलिपि तैयार करायी जिसमें उनकी पांच हज़ार से ज्यादा ग़ज़लें, शेर और रुबाइयां संकलित थीं. कविताओं की उसकी इस विशाल विरासत का पता 1702 में उसकी मौत के बाद चला. बाद में फ़ारसी और अंग्रेजी के किसी विद्वान ने दीवान की पांडुलिपि पेरिस और लंदन की नेशनल लाइब्रेरियों में पहुंचा दिया जहां वे आज भी सुरक्षित हैं. साहित्यकारों की नज़र इनपर पड़ी तो धीरे-धीरे दुनिया की कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ. सैकड़ों साल बाद दिल्ली में 1929 में और तेहरान में 2001 में फ़ारसी में ही इस दीवान का प्रकाशन हुआ. प्रस्तुत है जेबुन्निसा की दो रूबाइयों का मेरे द्वारा अंग्रेजी से किया गया अनुवाद.