जो सभी लोग करते हैं, आप भी अगर वही करेंगे, तो आपको कभी विशेषण नहीं मिलेंगे. अधिकतर विशेषण हास्यबोध से निकलकर आते हैं. जिनका बहुत मज़ाक़ उड़ाया जाता है और जो बहुत महान होते हैं (और दोनों अमूमन एक ही होते हैं और यह भी एक कारण है कि महान शब्द अब मख़ौल के लिए ज़्यादा प्रयुक्त होता है), वे अपने अधिकांश काम उस तरह नहीं करते, जिस तरह बाक़ी दूसरे लोग करते हैं. किसी को पागल इसलिए भी कहा जाता है कि वह समाज के प्राकृतिक नियमों का पालन नहीं करता. समाज और प्रकृति के साथ उसका अलग और निजी रिश्ता होता है. यही रिश्ता एक ‘जगह’ की निर्मिति करता है.
सिर्फ़ भौगोलिक जगह नहीं, सिर्फ़ मानसिक जगह नहीं, बल्कि दोनों क़िस्म की जगहों का एक अमूर्त-सा मिश्रण. एक ऐसा निजी मिश्रण, जो बहुत विशिष्ट होता है. कला का वास इसी अमूर्त-सी ‘जगह’ में होता है.जैसे दिल्ली में लाखों शायर हुए होंगे, नामदार, गुमनाम और ज़्यादातर ने दिल्ली को अपनी शायरी में जगह दी, लेकिन जो ग़ालिब की दिल्ली है, वह किसी और की दिल्ली नहीं. जो मीर की है, वह भी किसी और की नहीं. एक ही दिल्ली दो लोगों के भीतर नहीं रह सकती. हम इन लोगों को पढ़ते हैं और इनकी दिल्ली को खोजते हैं. जहां वह हमारे भीतर की दिल्ली से मैच हो जाती है, हम पा लेने के भाव से भर जाते हैं. तब हम पढ़ रहे होते हैं दिल्ली, लेकिन समझ रहे होते हैं भोपाल. मीर लिख रहे हैं अपने दिल का हाल, हमें लगता है, हमारे दिल का अहवाल. कविता एक ऐसी ‘जगह’ है, जहां ग़लत समझकर भी, दरअसल, हम कितना सही समझ रहे होते हैं.
जैसे निदा फ़ाज़ली का एक शेर है –