कुंवर नारायण की कविताएं पूरी दुनिया से संवाद करती हैं : गीत चतुर्वेदी
कुंवर नारायण हिंदी के उन दुर्लभ कवियों में से थे, जो अपने रचनाकर्म से व्यापक समाज की अधिभौतिकता को संबोधित करते हों. अधिभौतिकता एक कठिन शब्द है. बहुत आसानी से अपना अर्थ स्पष्ट नहीं होने देता. कई लोग अध्यात्म और अधिभौतिक को एक मानने की भूल करते हैं, लेकिन अधिभौतिकता, अध्यात्म से कहीं ज्यादा गहरा […]
By Prabhat Khabar Digital Desk | November 17, 2017 11:50 AM
कुंवर नारायण हिंदी के उन दुर्लभ कवियों में से थे, जो अपने रचनाकर्म से व्यापक समाज की अधिभौतिकता को संबोधित करते हों. अधिभौतिकता एक कठिन शब्द है. बहुत आसानी से अपना अर्थ स्पष्ट नहीं होने देता. कई लोग अध्यात्म और अधिभौतिक को एक मानने की भूल करते हैं, लेकिन अधिभौतिकता, अध्यात्म से कहीं ज्यादा गहरा व समावेशी शब्द है. यह शब्द मनुष्य की आत्मा की रसोई है. केवल कविता ही नहीं, सारी कलाएं इसी रसोई से निकलकर आती हैं और समाज की इसी रसोई को ही संबोधित करती हैं. इसीलिए कविता को आत्मा का भोजन कहा जाता है.
समाज की अधिभौतिक चेतनाओं को संबोधित करना कुंवर नारायण की कविताओं की एक बड़ी खूबी है. एक कमजोर नैतिक बलवाले इस समाज में, उपनिवेशों और आक्रांताओं से टूटे मनोबल वाले इस इतिहास में, आत्मबल जुटाने की कोशिश में हांफ रहे इस भूगोल में, एक कवि जब अपनी कविताओं के जरिये यह भूमिका अदा करता है, तो दरअसल वह कितनी बड़ी भूमिका है. इसीलिए उनकी कविताएं एक मनोवैज्ञानिक, मानसिक मोर्चा हैं. उनकी रचनाएं हमारी कलात्मक, सांस्कृतिक और मानवीय अनुभूतियों की गहराई तक को छूनेवाली आवाज हैं.
कुंवर नारायण का न रहना महज हिंदी संसार के लिए नहीं, बल्कि पूरी अंतरराष्ट्रीय कविता के लिए शोक का अवसर है. कम ही हिंदी कवियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह मान्यता मिल पायी, जो कुंवर नारायण को मिली. इसके पीछे एक कारण यह भी है कि उन्होंने अपने समूचे रचनाकर्म को कृष्ण और धवल जैसे दो ध्रुवों में बांटने, किसी एक राजनीतिक विचारधारा का झंडा बुलंद करने और आनन-फानन निर्णय दे देने जैसी जल्दबाजियों पर नहीं टिकाया, बल्कि उनका रचनाकर्म दो रंगों के मिलन से बननेवाले तीसरे रंग को तरजीह देता रहा. यह तीसरा रंग हमेशा मनुष्यता का रंग होता है, जिसमें सद् और खल, सत्य व असत्य, कल्पना व यथार्थ, मनुष्य व समाज दोनों ही मिले हुए होते हैं. इसलिए अगर उनके पूरे रचनात्मक व्यक्तित्व को एक शब्द में परिभाषित करना हो, तो वह बनेगा- समावेशी. मनुष्यता के स्वप्न को अमल में लाने के लिए कवि को समाज के जिस हिस्से से जो भी कुछ मिल जाये, उसे अपनी कविता व कला में समावेशित कर लेना, यह बताता है कि कवि का चिंतन बहुत गहरे स्तर पर सामाजिक चिंतन है.
पिछले दो-तीन दशकों में कुंवर नारायण संभवत: सबसे ज्यादा पढ़े गये कवि हैं, क्योंकि उनकी भाषा में सादगी का वैभव है, उनके चुने हुए विषयों में हमारे मन का यथार्थ है और उन विषयों के साथ वह एक प्रेमी, एक सहृदय जैसा व्यवहार करते हैं. पाठक की विचारधारा चाहे जो हो, उसकी अनुभूतियां एक समान होती हैं. कुंवर नारायण ने मनुष्य की आधारभूत अनुभूतियों को अपनी रचनाशीलता के केंद्र में रखा, उसकी वैचारिक अवस्थिति को नहीं, इसीलिए उनकी कविताएं एक साथ सभी से बात करती हैं. एक कवि के भीतर यह विवेक होना कितना आवश्यक है, खासकर उस समय में, जब हर राजनीतिक पार्टी के पास कवियों का अपना समूह हो.
किसी कवि की मृत्यु के समय उसे याद करना दरअसल, उसकी पार्थिव उपस्थिति को प्रणाम करने जितना ही है. वरना कवि को असली प्रणाम तो तब होता है, जब मन से उसकी कविताओं का पाठ किया जाये. कुंवर नारायण की देह भले हमारे बीच न हो, उनकी कविताएं हमारे साथ हैं. और वे हमेशा पढ़ी जाती रहेंगी. उन्होंने हमेशा चाहा कि उनके रचनाकर्म से उन्हें जाना जाये, इसीलिए उनकी सार्वजनिक उपस्थितियां कम ही रहीं.
वह कीर्ति-युद्धों में शामिल नहीं पाये गये. उन्होंने अपने साथ चलनेवाले लोगों को भी जगह दी. कविता में भी उन्होंने यही आकांक्षा व्यक्त की है. व्यक्तिगत स्तर पर कुंवर नारायण कम ही लोगों से मिलते थे, लेकिन उनकी कविताएं पूरी दुनिया से मिलती हैं. पूरी दुनिया से संवाद करती हैं. एक कवि अपना पूरा व्यक्तित्व अपनी रचनाओं की गंगा में बहा देता हो, हिंदी में कुंवर नारायण से बेहतर इसका उदाहरण कोई दूसरा नहीं.