-रचना प्रियदर्शिनी-
‘मेरे पास नया कुछ कहां से आयेगा लाडो, सुनाने को? नया तो तेरे पास होगा. तू बाहर निकलती है. मैं तो सारा दिन यही चारपाई पर गुजार देती हूं.’ ‘फिर भी अम्मा आपके पास मुझसे ज्यादा मजेदार कहानियां हैं. आपके बचपन की कहानियां. पाकिस्तान की कहानियां और आपकी जिंदगी की से जुड़ी बाकी तमाम कहानियां. आप बस कहती जाइए. एक दिन मैं आपकी इन सारी कहानियों को लाऊंगी दुनिया के सामने.’ यह सुनते ही उनकी आंखों की पुतलियों की चमक बढ़ जाती थीं. उन्हें छिपाने की नाकाम कोशिश करते हुए वह कहती- ‘चल हट पगली. मेरी कहानी लिखेगी. ऐसा है क्या मेरी जिंदगी में, जो तू लिखेगी? कोई मुझे पहचानता भी नहीं. तू अगर लिख भी देगी, तो कौन पढ़ेगा उस कहानी को?’
‘क्या बात करतीं हैं अम्मा! कोई पढ़ेगा क्यों नहीं? आप देखिएगा, आपकी कहानी बेस्ट सेलर होगी, बेस्ट सेलर.’ इस पर वह बड़े ही भोलेपन से पूछ बैठतीं- ‘वो क्या होता है पुत्तर?’ उनका मतलब ‘बेस्ट सेलर’ से होता था. ‘मतलब जो सबसे ज्यादा बिके’, मैं उन्हें समझाते हुए कहती. यह सुनकर वह खूब खुश हो जातीं और अपनी जिंदगी को फिर से शब्दों में ढालने लगतीं.
‘तू मेरे बचपन की कहानियां सुनना चाहती है पुत्तर, पर क्या सुनाऊं? बचपन को किसी ने बचपन रहने ही कहां दिया. सन् 1952 में पंद्रह साल की उम्र में ही शादी हो गयी. तब कोई समझ तो थी नहीं. केवल बचपना था. हमलोग किसान परिवार से थे. मालिक की मरजी थी, तो शादी हो गयी. तेरे बाऊजी उम्र में मुझसे 17 साल बड़े थे. उस वक्त उनकी तनख्वाह 100-200 रूपये महीना थी. मेरा तो पूरा परिवार भी अनपढ़ था, फिर भी मेरे आदमी से कभी मेरी लड़ाई नहीं हुई. वे दिन-रात कमाने में लगे रहे और मैं घर के कामों में. 50 साल की उमर तक हम दोनों साथ रहे, लेकिन न तो कभी कहीं घूमने गये, न ही साथ में कभी शहर-सिनेमा ही देखा.