आप किसके लिए लिखते हैं?

-गीत चतुर्वेदी- 1996-97 का समय.19-20 साल का एक युवक (यानी मैं), मुंबई में नरीमन पॉइंट पर बैठ, दूसरे युवक (यानी एक प्यारा कवि-मित्र) से पूछता है, “तू किसके लिए लिखता है?” वह जवाब देता है, “मैं समाज के शोषित-पीड़ित-दमित वर्ग के लिए लिखता हूं. मैं राशन की दुकान व रोज़गार कार्यालय की क़तार में खड़े […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 16, 2018 5:35 PM
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यह अवचेतन में इस तरह चलता है कि जिस समय रचना की कल्पना की जाती है, उसी समय उसे पढ़ने वाले ‘प्रतिनिधि पाठक’ की कल्पना भी कर ली जाती है और यदि दोनों में साम्य बन गया, तो रचना कामयाब मान ली जाती है. साहित्य स्वभावत: द्विपक्षीय है- लेखक मौजूद है तो पाठक को भी मौजूद होना होगा. एक की अनुपस्थिति हुई, तो ‘साहित्य’ नहीं बनेगा. जिस रचना को किसी ने नहीं पढ़ा, उसका अस्तित्व ही नहीं बचेगा, साहित्य में उसका प्रवेश तो दूर की बात. गुणाढ्य की वृहत्कथा को कोई पढ़ने-सुनने को राज़ी न था, जंगल जाकर अपनी कहानी उसने ख़ुद ही को सुनानी शुरू की, फिर रोते हुए एक-एक पन्ना जलाने लगा. वे हिस्से नष्ट हो गए. थोड़ा-सा हिस्सा वह बचा, जिसे बाद में दूसरों ने पढ़ा-सुना.साहित्य का एक अर्थ दो चीज़ों के ‘सहित’ होने में है.

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