Guru Purnima 2025: गुरु का शब्द नहीं, बल्कि मौन ही ईश्वर की भाषा है

Guru Purnima 2025: गुरु पूर्णिमा का पर्व गुरु की महिमा और उनके मौन ज्ञान को समर्पित है. गुरु का मौन केवल शांति नहीं, बल्कि ईश्वर की सच्ची वाणी होता है. इस दिन शिष्य अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं और आत्मिक विकास की दिशा में एक नया संकल्प लेते हैं.

By Shaurya Punj | July 10, 2025 9:54 AM
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लेखिका : नेहा प्रकाश

Guru Purnima 2025: गुरु वह अनन्त द्वार हैं जिसके माध्यम से ईश्वर हमारे जीवन में प्रवेश करते हैं. तथा यदि हम अपनी इच्छा और चेतना को गुरु के साथ समस्वर नहीं करते हैं तो सम्भवतः ईश्वर भी हमारी सहायता नहीं कर सकते. आजकल लोग ऐसा मानते हैं कि शिष्यत्व स्वेच्छापूर्वक गुरु को अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्ति समर्पित करने के समान है. परन्तु गुरु की सार्वभौमिक करुणा के प्रति निष्ठा निश्चित रूप से दुर्बलता का प्रतीक नहीं है.

मानव जीवन और इच्छाशक्ति का प्रयोग

स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी ने कहा था, “इच्छा की स्वतन्त्रता पूर्वजन्म और जन्मोत्तर की आदतों या मानसिक भावनाओं के अनुसार कार्य करने में निहित नहीं है.” परन्तु, सामान्य मनुष्य अपना दैनिक जीवन वस्तुतः अपनी इच्छाशक्ति का रचनात्मक प्रयोग किए बिना ही व्यतीत करते हैं—संकट में, दुःख में और यहाँ तक कि आनन्द में भी. स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ है अपने अहंकार से मुक्त जीवन जीना. यह तभी सम्भव है जब हम अनन्त ज्ञान, सर्वसमावेशी चेतना, सर्वव्यापी प्रेम पर ध्यान करते हैं; जिसे शिष्य एक सच्चे गुरु की शिक्षाओं के माध्यम से अनुभव कर सकते हैं. “गुरु” शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है : “गु” का अर्थ है अन्धकार, और “रु” का अर्थ है समाप्त करना या भंग करना. गुरु जन्म-जन्मान्तर तक हमारे हाथों को थामे रखते हैं जब तक कि हम माया की अन्धकारपूर्ण गलियों को पार कर अपने वास्तविक निवास अर्थात् आत्मज्ञान में स्थित होकर सुरक्षित नहीं हो जाते.

गहन आत्मिक लालसा और ईश्वर की प्रतिक्रिया

तो कोई व्यक्ति सच्चे गुरु को कैसे प्राप्त कर सकता है? ऐसा कहा जाता है कि गुरु को हम नहीं खोजते हैं, अपितु स्वयं गुरु ही हमें खोज लेते हैं. जब सर्वोच्च सत्य को प्राप्त करने की हमारी लालसा अत्यधिक तीव्र हो जाती है, तो ईश्वर हमें आत्म-साक्षात्कार की चुनौतीपूर्ण यात्रा पर प्रगति करने हेतु मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए एक ईश्वरीय माध्यम अर्थात् गुरु को भेजकर प्रत्युत्तर देते हैं. ऐसे गुरु ईश्वर के द्वारा निर्धारित होते हैं. वे ईश्वर के साथ एकाकार होते हैं और उन्हें धरती पर ईश्वर के एक प्रतिनिधि के रूप में उपदेश देने की ईश्वरीय स्वीकृति प्राप्त होती है. गुरु मौन ईश्वर की अभिव्यक्त वाणी हैं. माया के सागर को पार करने के लिए शिष्य गुरु-प्रदत्त साधना का अनुसरण करके ज्ञान की अपनी जीवनरक्षक नाव का निर्माण करता है.

श्री श्री परमहंस योगानन्द एक ऐसे ही सच्चे गुरु थे जो दिव्य गुरुओं की परम्परा से थे और जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व में क्रियायोग मार्ग के ज्ञान का प्रसार करने की दिशा में कार्य किया. क्रियायोग आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के सर्वोच्च मार्गों में से एक है. अपने आध्यात्मिक गौरव ग्रन्थ, “योगी कथामृत” में, जिसने लाखों व्यक्तियों के जीवन को उन्नत किया है, योगानन्दजी लिखते हैं कि क्रियायोग एक मनोदैहिक प्रणाली है जिसके द्वारा मानव रक्त को कार्बन से मुक्त और ऑक्सीजन से संचारित किया जाता है. इस अतिरिक्त ऑक्सीजन के परमाणु प्राणधारा में परिणत हो जाते हैं जिसके द्वारा योगी ऊतकों के क्षय को नियन्त्रित और यहाँ तक कि रोक भी सकता है.

आध्यात्मिक प्रगति की ऐसी शक्तिशाली पद्धति को मानवजाति के साथ साझा करना आवश्यक था और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए योगानन्दजी ने अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी के आदेश से सन् 1917 में राँची में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) और सन् 1920 में लॉस एंजेलिस में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ) की स्थापना की.

सत्य के साधकों के लिए एसआरएफ और वाईएसएस से आत्म-साक्षात्कार गृह-अध्ययन पाठमाला के माध्यम से क्रियायोग की शिक्षाएं उपलब्ध हैं.

ऐसा माना जाता है कि यदि किसी श्रद्धावान् व्यक्ति की लालसा गहन और ईश्वर को जानने की तड़प अथक है, तो एक सच्चे गुरु स्वयं ही अपने शिष्य का मार्गदर्शन करने के लिए आते हैं. यह एक सच्चे गुरु का दिव्य वचन है. गुरु चाहे भौतिक शरीर में हों या न हों, वे सदैव उस शिष्य के निकट रहते हैं जो उनके साथ समस्वर होता है, क्योंकि एक सच्चे गुरु की चेतना शाश्वत होती है. सन्त कबीर के शब्दों में, “वह शिष्य अत्यन्त सौभाग्यशाली होता है जिसने एक सच्चे गुरु को खोज लिया है!”

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