Bihar: जब बाबा नागार्जुन ने उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने का किया विरोध, कहा था- हां मैं हूं जनसंघ का समर्थक

Bihar: समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, बाबा से हमारा परिचय 1974 में पटना में हुआ. कदमकुंआ के कांग्रेस मैदान के निकट एक सर्वोदय खादी संस्थान था. आंदोलन को लेकर शिवानंद तिवारी वहां गये थे. वहीं किसी ने उनसे आकर कहा कि बाबा नागार्जुन आपसे मिलना चाहते हैं. आपातकाल और बाबा नागार्जुन समेत कई विषयों पर शिवानंद तिवारी से खास बातचीत की है प्रभात खबर के राजनीतिक संपादक मिथिलेश कुमार.

By Ashish Jha | July 1, 2025 12:44 PM
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Bihar: जब बिहार सरकार ने उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा देने का फैसला किया था, तो बाबा नागार्जुन ने इसका कड़ा विरोध किया था. बाबा को जब कहा गया कि आप उर्दू का विरोध कर रहे हैं, ऐसे में लोग यह कहेंगे कि आप जनसंघ के समर्थक हैं. बाबा ने कहा, “इसकी कोई परवाह नहीं, कोई कहे तो कहे, इस मामले में हां मैं हूं जनसंघ का समर्थक.” गुलाम सरवर की गिनती उन दिनों अल्पसंख्यकों के बड़े नेताओं में होती थी. उन्ही के दवाब में सरकार ने यह कदम उठाया था.

फकक्ड़ की तरह था बाबा नागार्जुन का जीवन

1974 के छात्र आंदोलन के अगुआ नेताओं में से एक रहे शिवानंद तिवारी उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, बाबा से हमारा परिचय 1974 में पटना में हुआ. कदमकुंआ के कांग्रेस मैदान के निकट एक सर्वोदय खादी संस्थान था. आंदोलन को लेकर शिवानंद तिवारी वहां गये थे. वहीं किसी ने उनसे आकर कहा कि बाबा नागार्जुन आपसे मिलना चाहते हैं. शिवानंद तिवारी बताते हैं, मैं यह सुनकर बहुत उत्साहित हुआ कि बाबा नागार्जुन मुझसे मिलना चाहते है. वो बाबा के कमरे में पहुंचे. बाबा एक खटिया पर चुकुमुकु बैठे थे. सिर पर छितराये बाल, चेहरे पर बड़ी बड़ी बिखरी दाढ़ी और पीले दांत. पहली नजर में बाबा का व्यक्तितव कहीं से उन्हें प्रभावित नहीं कर पाया.

जब चंबल में डकैतों से मिले

शिवानंद जी बताते हैं आंदोलन के दौरान ही जेल में हमारे साथ कवि लाल धुंआ जी भी बंद थे. उन्होंने बाबा का एक क़िस्सा सुनाया. एक बार बाबा मध्यप्रदेश में चंबल इलाके में पहुंचे. लाल धुंआ जी भी साथ थे. वहां उनकी बहन ब्याही थी. बस से उतर कर गांव की ओर जाना था. वहीं मोड़ पर पेड़ की छाया में कुछ लोग बैठे थे. वहीं मिठाई की दो तीन दुकानें थीं. गर्मी का मौसम था. लोग वहां सुस्ताने और पानी पीने के लिए बैठते थे. वहां मिठाई की दो तीन दुकानें थीं. पेड़ा की बिक्री को बैठे थे. उनमें से पेड़ा वाले के पास पांच से सात किलो तक पेड़ा था. बाबा को कौतुहल हुआ. तभी दो लोग उस पेड़े वाले के पास पहुंचे. एक के कंधे पर बंदूक टंगी थी. उसने सभी पेड़ा ले लिया. वे थोड़ा आगे बढ़ गये तो बाबा ने दुकानदार से पूछा. ये लोग कौन थे? दुकानदार ने बताया कि वे लोग बागी थे.

जब सरदार ने वहां से निकले को कहा

बाबा को मालूम था कि उस इलाक़े में डाकुओं को बागी कहा जाता है. वे उनके पीछे हो लिये. लाल धुंआ जी ने रोका तो उन्होंने कहा कि चलो, इनका जीवन कैसा होता हे, देखा जाए. हम लोग उन दोनों के पीछे लग गये. उनको लगा कि ये हमलोगों का पीछा कर रहे हैं. तत्काल बंदूक टांगे व्यक्ति ने बाबा के सीने पर बंदूक सटा दिया. बाबा घबराये नहीं, कहा- “हम तुम्हारे सरदार से मिलना चाहते हैं.” उन दोनों ने बाबा को पकड़ लिया अपने सरदार के पास ले गये. सरदार थोड़ा पढ़ा लिखा था. उसने बाबा नागार्जुन का नाम सुना था. बाबा को आदर से बिठाया. बाबा ने कहा हम यह देखना और जानना चाहते हैं कि आपलोग किस प्रकार जंगल में रहते हैं. तब तक अगले दिन उस इलाके में पुलिस की घेराबंदी शुरू हो गई. सरदार ने बाबा को कहा ,आप लोग तत्काल यहां से निकल जाइये. नहीं तो पुलिस की गोली के शिकार हो जायेंगे. सरदार ने अपने दो विश्वस्त लोगों को बाबा के साथ लगा दिया. उसने बाबा को जंगल के रास्ते नदी पार कर एक क़स्बे में पहुँचा दिया. जहाँ से इनको शहर जाने की सवारी मिल गई.

बाबा के आमदनी का नहीं था कोई नियमित साधन

शिवानंद जी बताते हैं कि बाबा नागार्जुन का जीवन फकक्ड़ की तरह था. बाबा के आमदनी का कोई नियमित साधन नहीं था. परिवार की चिंता की भी चिंता थी. इसलिए किसी कार्यक्रम में उनको बुलाया जाता था, तो अपनी फ़ीस तय करा लेते थे. बड़े बेटे बचपन से अस्वस्थ रहते थे. छोटे बेटे की पढ़ाई का खर्च था. सबके लिए खर्च जुटाना चुनौती थी. एक बार किसी ने उनसे पूछा कि आप कविता में बहुत छोटी लाइन लिखते हैं. बाबा ने कहा कि यह बिक जाती है. बड़ी लाइनें नहीं बिकती.

जेल में बंद कई लोगों की नहीं हुई चर्चा

इमरजेंसी के दौरान जेल में बंद कई ऐसे लोग थे उनके जेल जीवन पर चर्चा नहीं हुई. फुलवारी जेल में बंद शिवानंद तिवारी उन दिनों को याद कर बताते हैं, हमलोगों के साथ कवि लाल धुआं जेल में बंद थे. उन्होंने ही बाबा के साथ बाग़ियों से मुलाक़ात की कहानी बताई थी. लाल धुआं जो फक्कड़ मिज़ाज के आदमी थे. खर्चा चलाने के लिए पटना में प्रूफ़ रीडिंग करते थे. वे मजाकिया किस्म के आदमी थे. जब आपातकाल लगा तो लाल धुंआ जी गिरफ़्तार नहीं किए गए. यह उनके क्रांतिकारी मन को मंजूर नहीं हुआ. दारु पीने की आदत थी. अंग्रेज़ी संभव नहीं थी. देसी ही चलाते थे. रोज़ाना दारू पी कर बीएन कालेज से इंजीनियरिंग कालेज के गेट तक रिक्शा के पौदान पर चढ़ कर सरकार और इमरजेंसी के खिलाफ नारे लगाते और भाषण करते थे. शुरू में पुलिस ने ध्यान नहीं दिया. आखिरकार तीन-चार दिनों के बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. गिरफ्तार कर उन्हें फुलवारी जेल में ही लाया गया. मैं भी गिरफ़्तारी के बाद वहीं था. उन दिनों जेल की हालत अजायबघर जैसी हो गई थी.

जेल में कोई अपना चरित्र छुपा नहीं सकता

इमरजेंसी के साथ ही आरएसएस सहित कई संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. उन सब के लोग जेल में बंद थे. आंदोलनकर्मी तो थे ही. लाल धुंआ जी की औपचारिक शादी नहीं हुई थी, लेकिन शांति जी एक मारवाड़ी महिला उनकी सहयात्री थीं. शांति जी दो-चार दिनों के अंतराल पर ठर्रा की बोतल लेकर उनसे मिलने आती थीं. उनमें से एक तो वहीं गेट पर ही खत्म कर देते थे. दूसरा बोतल अंदर आते थे. उस जेल में सर्वोदय आंदोलन के बहुत प्रतिष्ठित नेता सिद्धराज ढड्डा भी थे. वार्ड में उनका बिस्तर सबसे अलग दिखता था. जेल से ही सबको बिस्तर मिला था. ढड्डा जी अपना बिस्तर क़रीने से रखते थे. एक बार लाल धुंआ जी ने ढड्डा की अनुपस्थिति में ख़ाली बोतल ढड्डा जी बिस्तर के बीचोंबीच रख दिया. वे आये तो बोतल देखकर चकित हुए. फिर झुककर नाक बोतल के पास ले गये. ठर्रा का गंध जैसे ही नाक में घुसा, चौंककर खड़े हो गये. खिड़की से लाल धुंआ जी और उनकी युवा टोली जम कर ठहाका लगाया. अब सिद्धराज का तो पूछिए मत ! इस तरह की कितनी कहानियाँ होंगी. जेल ऐसी जगह है जहाँ आप अपने को छिपा नहीं सकते हैं. आज या कल आपका असली रूप सामने आ ही जाता है.

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