समर्थकों के लिए मसीहा विरोधियों के लिए आतंक! राजनीति, अपराध और सत्ता के बेताज बादशाह की कहानी 

Mohammad Shahabuddin: बिहार की राजनीति में करीब 90 के दशक में अगर किसी नाम ने सत्ता और अपराध के गठजोड़ को नई परिभाषा दी तो वह था सैयद मोहम्मद शहाबुद्दीन. कभी सीवान की गलियों में उनका हुक्म कानून से भी बड़ा था, तो कभी उन्हें बुर्का पहनकर भागना पड़ा. समर्थकों के लिए वह मसीहा थे, विरोधियों के लिए खौफ का दूसरा नाम. बंदूक, बाहुबल और बैलेट की इस कहानी में सत्ता के शिखर से तिहाड़ की सलाखों तक का सफर है और वो भी ऐसे, जिसे बिहार की राजनीति कभी भूल नहीं पाएगी.

By Abhinandan Pandey | March 10, 2025 10:31 AM
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Mohammad Shahabuddin: सीवान, यह नाम कभी बिहार की राजनीति में एक खास पहचान रखता था और इसके केंद्र में थे सैयद मोहम्मद शहाबुद्दीन. अपराध, सत्ता और जनसंपर्क का अनोखा मिश्रण, जिसने उन्हें एक बेताज बादशाह बना दिया. 90 के दशक में बिहार में लालू यादव की सोशल इंजीनियरिंग (किसी विशेष दृष्टिकोण या सामाजिक व्यवहार को प्रभावित की जाने वाली कोशिश) अपने चरम पर थी, तभी सिवान से शहाबुद्दीन का नाम तेजी से उभरा.

1990 में जब वह जेल में थे उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीत दर्ज की. उनका चुनाव चिह्न शेर था और यह सिर्फ प्रतीक नहीं था यह उनकी राजनीति की शैली को भी दर्शाता था. लालू यादव की सरकार में शहाबुद्दीन को पूरी तरह संरक्षण मिला. वह मुस्लिम-यादव (MY) गठबंधन के लिए एक मजबूत स्तंभ बन गए. जिससे लालू यादव को सत्ता में बने रहने में मदद मिली.

सत्ता का समानांतर साम्राज्य

सीवान के रहने वाले मनीष (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि शहर में शहाबुद्दीन की अदालत लगती थी जहां विवादों का निपटारा उनके आदेशों से होता था. सरकारी अधिकारी उनकी मर्जी के बिना कोई फैसला नहीं ले सकते थे. शहर में उनके कटआउट हर गली-कूचे में लगे होते थे, और उनके रहते किसी दूसरी पार्टी का झंडा फहराने की हिम्मत कोई भी नहीं कर सकता था. उनकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि शहाबुद्दीन का आदेश ही सीवान में कानून था. पुलिस और प्रशासन ने उनकी आपराधिक गतिविधियों से आंखें मूंद ली थीं, जिससे उनकी ताकत और बढ़ती चली गई.

जनता के लिए ‘साहेब’

सत्ता और अपराध के बीच संतुलन साधने वाले शहाबुद्दीन को उनके समर्थकों ने ‘साहेब’ की उपाधि दी. उन्होंने गरीबों के लिए डॉक्टरों की फीस 50 रुपये तय कर दी, बेरोजगार युवाओं को काम देने का वादा किया और खुद को जनता का नेता बताया. स्थानीय लोग कहते हैं, “शहाबुद्दीन अपने वचनों के पक्के थे. वह जिस काम का आश्वासन देते, उसे पूरा करने की पूरी कोशिश करते थे.”

जब शहाबुद्दीन को ‘बुर्का’ पहनकर भागना पड़ा

हालांकि, 2001 में एक ऐसा दिन भी आया जब शहाबुद्दीन को अपनी जान बचाने के लिए बुर्का पहनकर भागना पड़ा. पुलिस ने उनके खिलाफ जबरदस्त ऑपरेशन चलाया और शायद यह पहला मौका था जब उन्हें एहसास हुआ कि वह अजेय नहीं हैं. इसके बाद उनके खिलाफ कई मुकदमे चले, और धीरे-धीरे सत्ता का यह साम्राज्य कमजोर पड़ने लगा. जब 2005 में बिहार में नीतीश कुमार की सरकार आई, तो शहाबुद्दीन के खिलाफ कानूनी शिकंजा कसता गया. 

एक समझौता जो लालू यादव को करना पड़ा

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शहाबुद्दीन लालू यादव के लिए एक ‘समझौता’ थे. अमेरिका के प्रोफेसर जैफ्री विट्सो के मुताबिक, “शहाबुद्दीन पहले अपराधी थे, फिर नेता बने. लालू यादव ने मुस्लिम शक्ति को बनाए रखने के लिए उनका इस्तेमाल किया.”

जब ‘साहेब’ लौटे, तो सीवान की सड़कों पर उमड़ा जनसैलाब

साल 2016 में 13 साल जेल में बिताने के बाद जब सैयद मोहम्मद शहाबुद्दीन भागलपुर जेल से बाहर आए तो सीवान में उत्सव का माहौल था. उनके साथ दो बोरी किताबें थीं, शायद यह बताने के लिए कि जेल में उनका समय सिर्फ सलाखों के पीछे बीतने वाला नहीं था. लेकिन जेल से बाहर आते ही उन्होंने जो पहला बयान दिया, उसने बिहार की राजनीति में हलचल मचा दी. उन्होंने नीतीश कुमार को “परिस्थितियों का मुख्यमंत्री” कह दिया. यह बयान एक सीधी चुनौती थी. एक ऐसा इशारा जो साफ करता था कि वह अब भी खुद को लालू यादव की राजनीति का अभिन्न हिस्सा मानते हैं. 

उनके 200 गाड़ियों के काफिले को सिवान तक पहुंचने में 14 घंटे लग गए, क्योंकि सड़कें उन्हें देखने के लिए उमड़े हजारों लोगों से भरी थीं. उनके समर्थकों के लिए यह सिर्फ एक नेता की वापसी नहीं थी, बल्कि सीवान के ‘सुल्तान’ की घर वापसी थी. लेकिन यह वापसी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई. 

सुप्रीम कोर्ट का वार और तिहाड़ की सलाखें

शहाबुद्दीन की रिहाई ने बिहार की राजनीति में बवाल मचा दिया. कुछ ही महीनों बाद, 15 फरवरी 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी ज़मानत रद्द कर दी. फिर उन्हें सिवान से दिल्ली की हाई-सिक्योरिटी तिहाड़ जेल में शिफ्ट कर दिया गया. जहां से उनका साम्राज्य धीरे-धीरे ढहने लगा. 

खौफ की कहानियां, जो सिवान आज भी याद करता है

शहाबुद्दीन की मौजूदगी में सीवान का एक अलग कानून था. 1998 में सीपीआई-एमएल नेता छोटेलाल गुप्ता की अपहरण के बाद हत्या कर दी गई थी. इस केस में 2007 में उन्हें उम्रकैद की सजा मिली. 2015 में तेजाब कांड ने पूरे देश को हिला दिया. दो भाइयों को तेजाब डालकर जलाने और फिर गोली मारने के जुर्म में उन्हें उम्रकैद की सजा मिली. इस केस का तीसरा गवाह जो अपने भाइयों के लिए अदालत में गवाही देने वाला था 2014 में उसे मार दिया गया. 

लेकिन शायद सबसे खतरनाक घटना 2001 में घटी, जब सीवान पुलिस ने उन्हें पकड़ने के लिए उनके प्रतापपुर स्थित घर पर छापा मारा. एसपी बच्चू सिंह मीणा के नेतृत्व में पुलिस ने जब घेराबंदी की, तो शहाबुद्दीन के समर्थकों और पुलिस के बीच भारी गोलीबारी हुई. 

10 लोग मारे गए, जिनमें दो पुलिसकर्मी भी शामिल थे. इस मुठभेड़ में AK-47 और दूसरे खतरनाक हथियार बरामद हुए. अगले ही दिन, राबड़ी देवी की सरकार ने एसपी मीणा और जिले के बाकी वरिष्ठ अधिकारियों का तबादला कर दिया. यह दिखाता था कि बिहार की राजनीति में शहाबुद्दीन की कितनी पकड़ थी. 

‘साहेब’ की अदालत और इंसाफ का दूसरा नाम

शहाबुद्दीन के समर्थकों के लिए वह एक ताकतवर नेता थे, जो गरीबों को न्याय दिलाते थे. उनके आदमी कहते थे कि “जब साहेब पंचायत लगाते थे, तो वकीलों का धंधा ठप हो जाता था.” “साहेब ऊंची जातियों के खिलाफ गरीबों के लिए दीवार की तरह खड़े रहते थे.” उनके मुताबिक, “शहाबुद्दीन का खौफ उनकी ताकत थी, लेकिन वह रेप के किसी केस में कभी आरोपी नहीं हुए.”

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वफादारी की विरासत

शहाबुद्दीन की मौत के बाद भी उनकी कहानियां सिवान में ज़िंदा हैं. वह पेड़ लगाते थे, जेल में टाइल्स लगवाते थे और कहते थे, “जब समय आएगा, तो इन्हीं कमरों में रहना पड़ेगा.”उनकी राजनीति बंदूक और वफादारी पर टिकी थी. उन्होंने कभी लालू यादव का साथ नहीं छोड़ा. लेकिन अब उनके परिवार को राजनीति में टिके रहने के लिए बहुत मेहनत करनी होगी. राजनीति एक अलग खेल है. 

सिवान का इतिहास और शहाबुद्दीन की यादें

शहाबुद्दीन अब इस दुनिया में नहीं हैं. लेकिन सीवान के लोग उनकी कहानियां भूल नहीं पाए हैं. कुछ के लिए वह एक रॉबिनहुड थे, कुछ के लिए एक खूंखार डॉन लेकिन एक बात तय है सीवान की राजनीति में ‘साहेब’ की गूंज हमेशा सुनाई देगी. 

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