Kishanganj news : शक्ति पीठ के रूप में प्रसिद्ध है ठाकुरगंज का लाहिड़ी पूजा मंडप

Kishanganj news : 1905 में ठाकुरगंज आये डॉ कमलेश चंद्र लाहिड़ी ने 1924 में जो पूजा आरंभ की थी, वह आज ठाकुरगंज की एक पहचान बनी हुई है.

By Sharat Chandra Tripathi | October 9, 2024 8:29 PM
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Kishanganj news : ठाकुरगंज में 100 साल पुरानी दुर्गा पूजा अनूठी रस्मों, भोग के साथ परंपरा और भक्ति को एक साथ लाती है. यह बंगाल की सांस्कृतिक विरासत की एक दुर्लभ झलक पेश करती है. वैसे भी दुर्गा पूजा बंगालियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण पर्व है. धार्मिक सीमाओं को पार करके यह दुनिया भर के बंगालियों के लिए एक सांस्कृतिक प्रतीक बन गया है. यह त्योहार महिषासुर पर देवी दुर्गा की जीत का प्रतीक है. बंगाल के लोगों के लिए दुर्गा पूजा सिर्फ एक धार्मिक उत्सव से कहीं बढ़कर है. यह पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा, कलात्मकता और सामुदायिक भावना का एक समृद्ध मिश्रण है. इसी को समझते हुए रेलवे में नौकरी के लिए सन 1905 में ठाकुरगंज आये डॉ कमलेश चंद्र लाहिड़ी ने 1924 में जो पूजा आरंभ की थी, वह पूजा आज ठाकुरगंज की एक पहचान बनी हुई है. उस दौरान यह परिवार भले ही समृद्ध था, पर वर्तमान में आर्थिक स्थिति पहले जैसी समृद्ध नहीं है. (मुख्यतः क्योंकि आजादी के बाद जमींदारी प्रथा समाप्त हो गयी थी) फिर भी ये परिवार आज तक सभी अनुष्ठानों को बनाए रखते हुए समर्पण के साथ दुर्गा पूजा करता है.

दुर्गा पूजा मनाने के लिए जुटते हैं परिवार के लोग

परिवार के सभी लोग वार्षिक मिलन समारोह के रूप में धूमधाम से दुर्गा पूजा मनाने के लिए इकट्ठा होते हैं. लाहिड़ी परिवार की पूजा उनलोगों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है, जो दुर्गा पूजा का घरेलू स्पर्श पाने और पुरानी यादों में डूबे रहने के लिए “बोनेडी बारिर पूजा” ( जमींदारों के परिवार की पूजा ) देखने में रुचि रखते हैं. 1924 में जिस स्थल पर डॉ कमलेश चंद्र लाहिड़ी ने पूजा की शुरुआत की थी उस समय से लगातार उनके परिजनों द्वारा उसी स्थल पर दुर्गापूजा का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जा रहा है. भातढाला पोखर के समीप पिछले 100 वर्षों से बिना किसी अन्य सहयोग के लाहिड़ी परिवार द्वारा आयोजित होनेवाली यह दुर्गा पूजा भले ही लाहिड़ी परिवार की निजी पूजा हो, लेकिन दशकों से ठाकुरगंजवासी इस पूजा स्थल पर कई रीतियों को ऐसे निभाते हैं, मानो यह सार्वजनिक पूजा स्थल हो. डॉ कमलेश चंद्र लाहिड़ी द्वारा वर्षों पूर्व जिस आस्था और परंपरा के साथ दुर्गा पूजा की शुरुआत की गयी थी वह बरकरार है. यहां आज भी परंपरागत तरीके से पूजा-अर्चना और साज-सज्जा की जाती है. यहां की पूजा की एक और खासियत यह है कि यहां की प्रतिमाएं एक ही नाप (एक चाला) की होती हैं.

प्राचीनता का पुट लिए है पूजा स्थल

किशनगंज जिले के ठाकुरगंज रेलवे स्टेशन के पास स्थित राइस मिल परिसर में लाहिड़ी परिवार द्वारा आयोजित दुर्गा पूजा आज के आधुनिक युग में भी उसी परंपरागत रीति-रिवाजों के साथ मनायी जाती है, जैसी यह शुरुआती दिनों में मनायी जाती थी. लाहिड़ी परिवार स्वयं ही अपने स्तर पर संपूर्ण पूजा की व्यवस्था करता है. प्राचीनता का पुट होने के कारण यह पूजा स्थल नगर के लोगों की श्रद्धा और आस्था का प्रमुख केंद्र बना हुआ है. अब पारिवारिक आयोजन से आगे बढ़कर यह सार्वजनिक पूजा का रूप ले चुका है. पश्चिम बंगाल के कोलकाता की मां दुर्गा की झलक यहां की पूजा में देखने को मिलती है. इसलिए यहां हर साल दुर्गा पूजा के दौरान सप्तमी से नवमी तक मां दुर्गा की प्रतिमा देखने के लिए काफी भीड़ लगती है. लाहिड़ी पूजा मंडप में कदम रखते ही बंगाल के जमींदारों की परंपरागत, पारिवारिक दुर्गा पूजा की झलक मिलती है. देवी की प्रतिमा हो या ढाक की धुन, सब कुछ साधारण लगते हुए भी असाधारण अनुभूति कराता है. भक्तों के अनुसार, आरती के समय प्रतिमा जैसे जीवंत हो उठती है. यह अपने-आप में एक दिव्य अनुभूति है. पूजा के दौरान यहां आस्था का सागर उमड़ आता है. पारंपरिक बंगाली शैली की प्रतिमाओं की तरह यहां भी एक ही मूर्ति में सभी देवताओं की मूर्ति समाहित होती है. अन्य पंडालों की तरह यहां अलग-अलग मूर्तियां नहीं बनायी जातीं. मूर्तियों की वेशभूषा, गहने-मुकुट और शृंगार के दौरान भी परंपराओं का पूरा ध्यान रखा जाता है.

संधि पूजा बलिदान प्रतीकात्मक अर्पण का एक अनुष्ठान

जैसे ही अष्टमी नवमी को रास्ता देती है, संधि पूजा शुरू हो जाती है. दुर्गा-दलन पर 108 मिट्टी के दीपक जलाये जाते हैं एवं पूरा परिवार एक साथ आता है और समृद्धि व कल्याण के लिए प्रार्थना करता है. यह मान्यता है कि उस संधिक्षण में मां की प्रतिमा में प्राण आ जाता है. वह क्षण दिव्य होता है. इस प्रकार की दिव्य अनुभूति के अहसास के लिए ही यह भक्तों की श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है. लाहिड़ी परिवार की पूजा नोवमी को देवी दुर्गा की आरती के साथ की जाती है और उत्सव आधी रात तक जारी रहता है. इस दिन देवी को भोग भी लगाया जाता है. जैसे-जैसे दशमी करीब आती है पिछले चार दिनों की मस्ती और उत्साह खत्म हो जाता है. यह समय प्रिय देवी को अलविदा कहने का समय है. दोपहर में सिंदूर खेला के बाद मूर्ति को विसर्जन के लिए तालाब पर ले जाया जाता है.

परंपराओं का होता है पालन

हालांकि कई पुरानी पारिवारिक पूजा समय की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं, लेकिन ऐसा लगता है कि लाहिड़ी परिवार के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है. परिवार के सदस्य आलोक लाहिड़ी, सुब्रतो लाहिड़ी, जयंतो लाहिड़ी अपनी पारिवारिक पूजा के बारे में बात करते हुए बहुत खुश होते हैं. अब 50 की उम्र पार होने के बाद भी उन्हें पूजा में शामिल युवाओं के जोश और उत्साह में कोई बदलाव नहीं दिखता. परिवार की महिलाएं भी आयोजन में बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं. वे कहती हैं “इस साल भी हमारा बड़ा परिवार अपने दोस्तों के साथ हमारे घर में एक साथ आयेगा और हम उन प्रतिष्ठित पांच दिनों को एक साथ बिताएंगे, जिनका हम इंतजार करते हैं.”

महिलाओं की भी रहती है सक्रियता

पुश्तैनी रीति-रिवाजों में निहित यह पूजा वर्षों से चली आ रही उसी समर्पण और रीति-रिवाजों के साथ की जाती है. इस त्योहार में उतना ही महत्वपूर्ण भोजन या पूजोर भोग है, जिसे देवता को पवित्र भोजन के रूप में चढ़ाया जाता है. फिर भक्तों में वितरित किया जाता है. बताते चलें कि बंगाली संस्कृति में दुर्गा पूजा और भोजन के बीच का संबंध अविभाज्य है. बंगालियों के लिए पारंपरिक बंगाली व्यंजनों का स्वाद लिए बिना कोई भी पूजा उत्सव पूरा नहीं होता. स्वादिष्ट भोग से लेकर स्थानीय व्यंजनों तक यह त्योहार एक ऐसा स्वादिष्ट अनुभव लेकर आता है, जो शुद्ध और स्वास्थ्यवर्धक होता है. त्योहार के दौरान घर में पकाये गये शुद्ध बंगाली व्यंजनों पर जोर एक पाक यात्रा है, जो सरल लेकिन समृद्ध स्वादों का आनंद लेने का एक दुर्लभ अवसर प्रदान करती है. परिवार की महिला सदस्य हेमंती लाहिड़ी, कजरी लाहिड़ी, चित्रा घोषाल, मिली लाहिड़ी कहती हैं कि मां दुर्गा की आराधना में एक अलग ही आनंद है.

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