यादवों का गढ़, जहां गैर-यादव की हिम्मत टूटी
1952 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में बीपी मंडल ने जीत का परचम लहराया था. चुनाव1952 से मधेपुरा विधानसभा सीट पर हुए चुनावों में हर बार यादव उम्मीदवार ही जीता. लोकसभा सीट पर भी 1967 और 1968 को छोड़कर हर बार यादव ने ही परचम लहराया. यहां के 32 फीसदी मतदाता यादव हैं, जो “रोम पोप का, मधेपुरा गोप का” की कहावत को साकार करते हैं. 17.51 फीसदी अनुसूचित जाति और 11.1फीसदी मुस्लिम मतदाता भी इस सियासी समीकरण में अहम भूमिका निभाते हैं. ग्रामीण मतदाताओं का दबदबा (88.78फीसदी) और शहरी मतदाताओं की कम हिस्सेदारी (11.23फीसदी) इस क्षेत्र की जमीनी हकीकत को बयान करता है.
लालू-शरद-पप्पू, इन यादव तिकड़ी का अधूरा सपना
मधेपुरा की राजनीति में लालू प्रसाद यादव, शरद यादव और पप्पू यादव जैसे दिग्गजों ने अपनी छाप छोड़ी, लेकिन कोई भी इस गढ़ को पूरी तरह अपना नहीं बना सका. लालू यादव ने शरद को मधेपुरा की सियासत में लाकर दोस्ती की मिसाल कायम की, लेकिन 1999 में शरद ने लालू यादव को हराकर दोस्ती को दुश्मनी में बदल दिया. पप्पू यादव ने भी बाहुबल और सियासी चातुर्य से अपनी जगह बनाई, लेकिन तीनों दिग्गजों को यहां हार का मुंह देखना पड़ा. यह मधेपुरा की वह खासियत है, जो किसी को भी स्थायी “सुल्तान” नहीं बनने देती.
निखिल मंडल बनाम चंद्रशेखर
इस बार मधेपुरा में जदयू ने बीपी मंडल के पोते निखिल मंडल को उतारने की रणनीति बनाई है. निखिल का सबसे बड़ा हथियार है उनकी दादा की विरासत और चंद्रशेखर के खिलाफ स्थानीय नाराजगी. चंद्रशेखर 2015, 2020 और 2021 में विधायक चुने गए, लेकिन स्थानीय लोग उन पर क्षेत्र की उपेक्षा और “हिंदू शास्त्रों के प्रलाप” में डूबे रहने का आरोप लगाते हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव में जदयू ने मधेपुरा की एक विधानसभा क्षेत्र को छोड़ दें, तो पांच विधानसभा सीटों पर बढ़त बनाई. डीसी यादव ने लगातार दूसरी बार लोकसभा सीट जीती. यह जदयू के लिए सुनहरा मौका है कि वह विधानसभा में भी इस लहर को भुनाए.
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