गांधी जी का यह दौरा अचानक नहीं था. चंपारण के रैयतों की पीड़ा और उनके साथ हो रहे अत्याचारों की खबरें उन्हें लगातार मिल रही थीं. जब उन्होंने तय किया कि वे स्वयं वहां जाकर वस्तुस्थिति देखेंगे, तो इसका पहला पड़ाव बना मुजफ्फरपुर. 10-11 अप्रैल 1917 की रात वे यहां पहुंचे और चार दिन तक शहर में रुके. यहां के लोगों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया, लेकिन प्रशासनिक हलकों में उनके आने से बेचैनी फैल गई.
कमिश्नर से तल्खी, किसानों के लिए प्रतिबद्धता
13 अप्रैल को गांधी जी की तिरहुत के कमिश्नर एल.एफ. मॉर्सहेड से मुलाकात हुई, जो बेहद औपचारिक और तीखी रही. कमिश्नर ने गांधी से दो सवाल पूछे पहला, वे किस हैसियत से चंपारण जाना चाहते हैं? दूसरा, क्या कोई बाहरी व्यक्ति वहां की समस्याओं को समझ सकता है? गांधी ने शांत और स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया कि उनका मकसद अशांति नहीं, बल्कि मानवता की सेवा है. वे सिर्फ यह जानना चाहते हैं कि नील की खेती के नाम पर किसानों पर कौन-कौन से अन्याय हो रहे हैं.
चंपारण जाने से रोकने की कोशिश
हालांकि गांधी के आश्वासन के बावजूद, प्रशासन सशंकित रहा. उसी शाम कमिश्नर ने चंपारण के कलेक्टर को निर्देश दिया कि गांधी को वहां से तुरंत लौटने को कहा जाए. इसके बावजूद, गांधी डटे रहे. इतिहासकारों के अनुसार, यह वही क्षण था जब गांधी एक सामाजिक कार्यकर्ता से राजनीतिक चेतना के जननायक में रूपांतरित हो रहे थे.
गांव-गांव में फैल चुकी थी खबर
चंपारण के गांवों में पहले ही यह बात आग की तरह फैल चुकी थी कि गांधी जी आने वाले हैं. 7 अप्रैल को ही हजारों लोग बेतिया स्टेशन पहुंचकर उनका इंतजार करने लगे थे. लोगों को उम्मीद थी कि यह आदमी उनकी वर्षों पुरानी पीड़ा का अंत करेगा.
गांधी जी का मुजफ्फरपुर से गहरा रिश्ता
गांधी जी इस शहर में तीन बार आए 1917, 1921 और अंतिम बार 1934 में. हर बार उनका स्वागत जनता के उत्साह से हुआ. लेकिन 1917 का आगमन ऐतिहासिक बन गया, क्योंकि यहीं से चंपारण सत्याग्रह की नींव रखी गई. आज, 108 साल बाद, मुजफ्फरपुर की मिट्टी गर्व से कह सकती है कि स्वतंत्रता संग्राम की सबसे बड़ी लड़ाई का पहला स्वर यहीं फूटा था.
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