बिहार का एक गांव ऐसा, जहां बेटियां धारण करती हैं जनेऊ, दिलचस्प है दशकों की परंपरा की कहानी

बिहार हिंदू धर्म में केवल बालक और पुरुषों के लिए ही जनेऊ पहनने की परंपरा है. कन्याओं के जनेऊ धारण करने की मनाही है. इसके बावजूद दशकों से मणिया गांव के दयानंद आर्य उच्च विद्यालय में अनेक छात्राएं जनेऊ धारण करती हैं.

By RajeshKumar Ojha | February 16, 2025 5:00 AM
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बिहार के बक्सर जिले का मणिया गांव (डुमरांव) बिहार का एकमात्र ऐसा गांव है, जहां पिछले तीन दशक से लड़कियों का उपनयन संस्कार कराया जाता है. हर साल बसंत पंचमी के अवसर पर यहां की लड़कियां जनेऊ धारण करती हैं. यह परंपरा 1972 से चली आ रही है.

ऐसे हुई इस परंपरा की शुरुआत

मणिया उच्च विद्यालय के संस्थापक और छपरा के रहने वाले आर्य समाज से जुड़े विश्वनाथ सिंह ने 1972 में इस परंपरा की शुरुआत की थी. कहा जाता है कि आचार्य की चार बेटियां मंजू, ऊषा, गीता व मीरा हैं. आचार्य ने विद्यालय की स्थापना के पहले साल पर बसंत पंचमी के दिन चारों बेटियों का जनेऊ संस्कार कर दिया.

तबसे यह परंपरा विद्यालय में चल रही है. उनका मानना था कि बेटा-बेटी एक समान होते हैं, तो धर्म में कैसा भेदभाव! भले उस वक्त समाज में इसे लेकर संशय था, लेकिन उन्होंने इस परंपरा को जारी रखा जो आज तक कायम है. आज घर से लेकर समाज हर कोई इसका हिस्सा बन रहा है.

सात साल की उम्र में हुआ था मेरा जनेऊ संस्कार

रोहतास की रहने वाली कुमारी मंजुश्री कहती हैं, वर्तमान में मैं हाउस वाइफ हूं. लंबे समय से जनेऊ धारण करती आ रही हूं. मेरे पिता विश्वनाथ सिंह वेदों के ज्ञाता थे. उन्होंने ही इस परंपरा की शुरुआत की थी. सात साल की उम्र में वर्ष 1972 में मेरा जनेऊ संस्कार हुआ था.

उस वक्त गांव और समाज के लोगों को संकोच के साथ-साथ आश्चर्य भी हुआ. मेरे पिता ने हमेशा से धर्म को अपना आधार बनाकर सभी के संकोच को दूर किया. उनका मानना था कि बेटा- बेटी एक समान है, तो धर्म में पक्षपात नहीं होना चाहिए. उन्होंने बेटियों को भी वैदिक मंत्र, पूजा की विधि और यज्ञ करना सिखाया. शादी के बाद जब ससुराल गयी, तो नाते-रिश्तेदारों ने जनेऊ धारण करने को लेकर सवाल किया, लेकिन मैंने उन्हें इसके महत्व को बताया.

अब बेटियां स्वेच्छा से इस संस्कार को अपनाती हैं

रोहतास के कन्या मध्य विद्यालय की शिक्षिका कुमारी मीरा ने भी जनेऊ धारण किया है. वे कहती हैं, मेरे पिता आर्य समाज के संस्थापक थे और उनका मानना था कि अगर कोई चीज अच्छी है, तो बेटा हो या बेटी, दोनों के लिए एक समान होना चाहिए. जनेऊ में तीन सूत्र माता-पिता और गुरु होते हैं.

जो अच्छाई के प्रतीक हैं. मेरी तीन दीदीयों ने पहले ही जनेऊ धारण कर रखा था. 1988 में जिस वक्त मुझे जनेऊ धारण करना था, उसी वक्त मेरे पिता का निधन हो गया. उस वक्त माता और आत्मा तीर्थ स्वामी के नेतृत्व में मैंने जनेऊ धारण किया. मैं इससे जुड़े सभी संस्कारों को मनती हूं. शादी के बाद थोड़ी परेशानियां आयी, लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक हो गया. मणिया गांव के स्कूल में जब भी संस्कार होता है मैं भी इसका हिस्सा बनती हूं.

मैं इसे जरूरी मानती हूं


छपरा की रहने वाली रेखा कुमारी ने 13 साल की उम्र में ही जनेऊ धारण कर लिया था. अभी वे ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर चुकी हैं. वे कहती हैं, जब मैं स्कूल में थी, तब छात्राओं से जनेऊ धारण करने को लेकर पूछा गया था. फिर मैंने अपने माता-पिता को इस बात की जानकारी दी.

उनका सहयोग मिला और उन्होंने हमें 2016 में बसंत पंचमी के दिन जनेऊ धारण कराया. स्कूल और कॉलेज के दौरान कई लोगों ने उनके जनेऊ धारण करने को लेकर पूछा, तो जवाब में मैंने कहा- इससे सनातन संस्कृति से जुड़ने के साथ-साथ समानता का अधिकार और नारी शक्ति को बढ़ावा मिलता है. सभी जिम्मेदारियों के साथ मैं अपने धर्म को भी साथ लेकर चलती हूं, जो मेरे आत्मविश्वास को बढ़ाता है.

यह कोई साधारण धागा नहीं

बेटियों में स्वाभीमान के साथ धर्म के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए मैंने जनेऊ धारण किया था. यज्ञोपवीत जिसे हम सामान्यतः जनेऊ के नाम से जानते हैं. यह कोई महज साधारण धागा नहीं, बल्कि हिंदू धर्म में इसके साथ कई विशेष मान्यताएं जुड़ी हुई हैं.

आमतौर यज्ञोपवीत संस्कार बालकों का होता है लेकिन इसी रूढ़िवादी परंपराओं को हम जैसी बेटियों ने तोड़ा है. रुनझुन कहती हैं, आज के समय में बेटियों के विकास के लिए हर मुमकिन कोशिश की जा रही है. इसमें शिक्षा सबसे अहम है. बेटियां अगर शिक्षित होंगी, तो वह धर्म के साथ न्याय और अन्याय के प्रति निर्णय ले सकेंगी. शास्त्रों में भी गुरुकुल जाने से पहले बेटियों का भी उपनयन संस्कार किया जाता था. ऐसे में धर्म की राह आपको सामाजिक कार्यों से जोड़ती है.  

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