पंचायत चुनाव के माध्यम से बिहार में गांव की सरकार बनाने का कार्य चल रहा है. प्रचार-प्रसार का कार्य जोरों पर है. ऐसे में समय के साथ चुनाव प्रचार के तरीकों में भी काफी बदलाव आया है. गांव के कुछ बुजुर्गों ने चुनाव में आए बदलाव के बारे में बताया. उनका कहना है कि आज भले ही पंचायत चुनाव का प्रचार डिजिटल मोड में हो रहा है. लेकिन एक समय था जब ढोल व झाल से पंचायत चुनाव का प्रचार होता था.
ढोलक-झाल था प्रचार का साधन
यह बात वर्ष 1973 से 1978 तक की है. जब सूबे में पंचायत चुनाव हुआ था. उस दौर में प्रचार का साधन ढोलक-झाल हुआ करता था. चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी भी दो-तीन होते थे. कहीं-कहीं जानकारी के अभाव में चुनाव निर्विरोध भी हो जाता था. इस पर किसी ग्रामीण को कोई आपत्ति नहीं होती थी व सभी एक साथ मिल कर रहते थे. उस दौर में सूचना का कोई साधन नहीं था. कुछ पढ़े-लिखे लोग ही चुनाव के बारे में जानते थे. गांव में रहने वाले अधिकतर लोग इसकी जानकारी स्थानीय कलाकारों के माध्यम से लेते थे.
रेडियो पर समाचार सुनकर चुनाव की होती थी तैयारी
बुजुर्ग कहते हैं कि जब पंचायत चुनाव की घोषणा होती थी तो लोग रेडियो पर समाचार सुन कर चुनाव की तैयारी करते थे. नामांकन कब है. छटनी कब है. चुनाव चिह्न कब मिलेगा. इन सारी बातों की जानकारी भी किसी को नहीं होती थी. नामांकन के बाद चुनाव चिह्न मिलने की जानकारी प्रत्याशी किसी दिन गांव पहुंचकर चौक-चौराहों पर बैठ कर देते थे. कोई ध्वनि यंत्र नहीं था. गांव के लोगों को एकत्रित करने के लिए डुगडुगी बजायी जाती थी. उस दौर के मुखिया ईमानदार छवि के लोग होते थे. उनकी योजना का काम गुणवत्तापूर्ण होता था. उस समय किया गया कार्य आज भी कहीं-कहीं दिखने को मिल जाता है. आजकल के नेता ईमानदार नहीं है. यदि कोई योजना बनायी गयी तो उसे अधूरी छोड़ दी जाती है.
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नाच कराकर भी होता था प्रचार
गांव में आने-जाने के लिए पगडंडी ही सहारा था. उस समय गांव के लोगों को जागरूक करने के लिए गांवों में प्रचलित नाच कराकर इस माध्यम से जनता को मतदान के लिए जागरूक किया जाताथा. धनबल का नामोनिशान नहीं था. बुजुर्गों का कहना है कि आज पंचायत चुनाव का रूप ही बदल गया है. गांव का माहौल खास कर चुनाव में तनावपूर्ण हो गया है. आज चुनाव में पैसा ही सबकुछ है. हर जगह प्रत्याशी नामांकन के पूर्व ही बड़ी-बड़ी पार्टियों का आयोजन कर रहा है. उस दौर में पहुंचने वाले लोगों का स्वागत गुड़-पानी से होता था.
बुजुर्गों की बात उनकी जुबानी
पहले पैदल चलकर प्रचार होता था. डुगडुगी की आवाज पर बैठक होती थी. एक-दूसरे पर विश्वास था. उस समय के मुखिया ईमानदार होते थे. आज ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ आदि शब्दों का इस्तेमाल कर जनता को गुमराह किया जा रहा है. उस समय मुखिया का कार्य जमीन पर दिखता था. आज पता ही नहीं चलता कि कब बना व कब टूट गया
Posted By: Thakur Shaktilochan
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