1874 में बांकीपुर डिस्पेंसरी में जगह की कमी के कारण 1875 में इसे ले जाया गया मुराद कोठी

PMCH 100th foundation day डा. सीपी ठाकुर कहते हैं कि पटना मेडिकल कॉलेज में 30 छात्रों का प्रवेश था. पूरे कोर्स के लिए उनको तब मात्र प्रति छात्र मात्र दो रुपये फीस देने होते थे.

By RajeshKumar Ojha | February 27, 2025 2:20 PM
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सुबोध कुमार नंदन

PMCH 100th foundation day पटना मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल (पीएमसीएच) की स्थापना 1874 में टेंपल मेडिकल स्कूल के रूप में की गयी थी. लेकिन, इस मेडिकल कॉलेज का औपचारिक उद्घाटन 25 फरवरी, 1925 को किया गया था. बिहार की रियासतों से मिले दान से विभिन्न भवनों का निर्माण किया गया था. 25 फरवरी को पीएमसीएच सौ वर्ष पूरा करने जा रहा है. शताब्दी वर्ष मनाने की तैयारी अंतिम चरण में है. शताब्दी समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भाग लेंगी. शताब्दी वर्ष तक का सफर कई उतार-चढ़ाव से गुजरा. जिस मकान में टेंपल स्कूल ऑफ मेडिसिन शुरू किया गया, वहां ईंट से बनाया गया एक तत्ले का मकान था.


इतिहासकार अरविंद महाजन ने बताया कि 1857 में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद बंगाल के गवर्नर ने कोलकाता के मेडिकल कॉलेज का बोझ घटाने और बिहार-यूपी से आने वाले कनिष्ठ स्तर के सैन्य सर्जनों को चिकित्सीय प्रशिक्षण देने के लिए पटना में एक चिकित्सीय संस्थान खोलने का निर्णय लिया. आज जहां बीएन कॉलेज के छात्रावास हैं, वहां 1874 में बांकीपुर डिस्पेंसरी थी, जिसे बाद में टेंपल स्कूल ऑफ मेडिसिन कहा गया. बाद में जगह की कमी के कारण 1875 में इसे मुराद कोठी ले जाया गया, जो 16वीं सदी के पीर शाह मुराद का निवास था.

शाह मुराद जहांगीर के शासन के दौरान बिहार के सूबेदार रहे मिर्जा रूस्तम सफवी के पुत्र थे. उन्होंने बताया कि शाह मुराद ने गंगा किनारे एक कोठी बनवायी और एक बाग व बाजार भी बसाया. बाद में यह कोठी मुरादकोठी के नाम से प्रसिद्ध हुआ बाग मुराद बाग और इसके उत्तर में स्थित बाजार मुरादपुर. शाह मुराद और उसकी पत्नी का मकबरा आज भी पीएमसीएचके चाइल्ड डिर्पाटमेंट और टाटा वार्ड के बीच है. ध्वस्त मुराद कोठी के स्थान पर अब प्रशासकीय ब्लॉक है.

अरविंद महाजन ने बताया कि हालांकि आरंभिक 18वीं सदी तक यह परिसर इस्ट इंडिया कंपनी के स्वामित्व में आ गया था, लेकिन फिर यह निजी हाथों में चला गया था और टेम्पल स्कूल ऑफ मेडिसिन यहां लाने के लिए सरकार ने इसे जुलाई 1875 में 1.28 लाख रुपये में खरीदा. 20वीं सदी के दूसरे दशक के अंत तक काफी ढह चुकी मुराद कोठी को गिरा दिया गया. हालांकि बाजार वहीं बना रहा. टेम्पल स्कूल की इमारत गंगा किनारे थी और जेनरल हॉस्पिटल ऑफ बांकीपुर इसी प्रांगण में इसके के दक्षिण में बनाया गया.

इस पर लगभग एक लाख रुपये का खर्च आया के था. बिहार उड़ीसा के 1 अप्रैल 1912 को बंगाल से अलग होने के बाद मेडिकल कॉलेज की आवश्यकता और बढ़ गयी. महाजन ने बताया कि इसीलिए 1925 में एडवर्ड प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन की स्मृति के रूप में प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज स्थापित किया गया. बाद में बिहार-उड़ीसा के गवर्नर सर हेनरी व्हीलर ने 25 फरवरी 1927 को मेडिकल कॉलेज का विधिवत उद्घाटन किया, जिसे अब पटना मेडिकल कॉलेज एण्ड हॉस्पिटल (पीएमसीएच) कहा जाता है. दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह ने सबसे अधिक पांच लाख रुपये दान दिये.


महात्मा गांधी पर कई पुस्तकों के लेखर भैरव लाल दास ने बताया कि 15 मई 1947 को अपनी पोती मनु के अपेंडिक्स ऑपरेशन कराने हेतु गांधीजी पीएमसीएच पहुंचे. उन्होंने डॉक्टर से आग्रह किया कि वे अपने सामने मनु का ऑपरेशन होते हुए देखेंगे. शुरू में तो डॉक्टरों ने मना किया, लेकिन बाद में वे मान गये. गांधीजी को भी ऑपरेशन थिएटर का मास्क आदि लगाकर ऑपरेशन टेबल के बगल में बैठाया गया और उन्होंने मनु का ऑपरेशन देखा.


पद्मश्री डा. सीपी ठाकुर ने बतया कि पटना मेडिकल कॉलेज में 30 छात्रों का प्रवेश था और पूरे कोर्स के लिए प्रति छात्र मात्र दो रुपये फीस थी. यह चलन 1925 तक जारी रहा. इसके बाद टेंपल मेडिकल स्कूल को दरभंगा स्थानांतरित कर दिया गया और इसके स्थान पर प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज के रूप में जाना जाने वाला एक मेडिकल कॉलेज स्थापित किया गया. इस मेडिकल कॉलेज का औपचारिक उद्घाटन 25 फरवरी 1925 को किया गया था.


पीएमसीएच के प्राचार्य डॉ. विद्यापति चौधरी ने बताया कि इस कॉलेज को इसे एशिया के सबसे पुराने मेडिकल कॉलेजों में से एक होने का गौरव प्राप्त है. यह ब्रिटिश भारत का छठा सबसे पुराना मेडिकल कॉलेज है. इसका एक गौरवशाली इतिहास है और इसे कई राष्ट्रीय और अंतररराष्ट्रीय व्यक्तियों को जन्म देने और उनका इलाज करने का श्रेय दिया जाता है. पीएमसीएच के पूर्व प्राचार्य और प्रख्यात नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ दुखन राम देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के मानद सर्जन थे.


पीएमसीएच एलुमनी एसोसिएशन के संयोजक डाॅ सचिदानंद कुमार ने बताया कि यहां सह-शिक्षा की व्यवस्था 1892 से शुरू हुई, लेकिन इस शिक्षा के प्रति लड़कियों में उत्साह नहीं पाया गया. पाठ्यक्रम साढ़े चार वर्षों का था और सफल छात्रों को एलएमपी (लाइसेंस मेडिकल प्रैक्ट्रिशनर) की डिप्लोमा डिग्री दी जाती थी.

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