देवेन्द्र चौबे
Veer Kunwar Singh 1857 के सेनानी कुंवर सिंह की वर्तमान पीढ़ी के दुर्ग विजय सिंह से मिली यह खबर आहत करनेवाली थी! जब से सुना हैं, मन उदास हैं. उससे हमारी पहली मुलाक़ात जगदीशपुर में 2005 में हुई थी, जब इतिहासकार रश्मि चौधरी के साथ 1857 के सेनानी कुंवर सिंह के गढ़ की यात्रा हुई थी.
फिर हम 2006 में मिले और आखिरी बार हमसब उससे 2019 में क्रिएटिव हिस्ट्री के वार्षिक कार्यक्रम मेरा गाँव, मेरा इतिहास में मिले. स्मृतियाँ ऐसी ही होती हैं. बार-बार लौटकर आती हैं! टर्की लेखक ओरहन पामुक के इंस्ताम्बुल की उस कहानी की तरह जिसे जितनी बार भुलाने की कोशिश हुई, अगली बार वह उतनी ही ताकत के साथ दुबारा आई! इतिहास की परिघटनाएं ऐसी ही होती हैं। वे बार-बार लौटकर आती हैं, “तुम मुझे जितनी बार भुलाओगे, उतना ही बार दुबारा लौटकर आऊंगी!”
2019 की वह सुबह याद हैं, जब 1857 के योद्धा कुंवर सिंह की वर्तमान पीढ़ी के निमंत्रण पर सुबह-सुबह हम सब उसके पास इकठ्ठा हुए थे। क्रिएटिव हिस्ट्री द्वारा आयोजित मेरा गाँव, मेरा इतिहास परिसंवाद के पहले हमारी एक जनजागरण परिक्रमा यात्रा राजनितिक विचारक नागेंद्र नाथ ओझा, महाराजा कॉलेज के प्रो. कन्हैया बहादुर जी, इतिहासकार रश्मि चौधरी, सीमा पटेल, कवि कुमार नयन, लक्ष्मीकांत मुकुल, चर्चित लेखक सुरेश कांटक, देवेन्द्र चौबे, कुंवर सिंह की वर्तमान पीढ़ी के सदस्य दुर्ग विजय सिंह, आरा से आये डॉ. नीरज कुमार सिन्हा, जगदीशपुर निवासी शाहबाज़ वारिश खान, विजय शंकर, नथुनी मालाकार, आलोक घोष, पंकज सिंह, अंगद सिंह, विवेक सागर, आस सिंह, संदीप सिंह और कई अनगिनत बुद्धिजीवियों के साथ वह सामूहिक यात्रा 1857 के संघर्ष और सेनानी कुंवर सिंह द्वारा कंपनी राज के खिलाफ किये गए बगावत के गवाह उस बूढ़े बरगद के नीचे से शुरू हुई थी.
दुर्ग विजय जी बता रहे थे, “यह हमारा पूर्वज हैं, करीब दो सौ साल पुराना! जब 8 अगस्त 1857 में अंग्रेजी फ़ौज के हमले में आँगन में कुंवर सिंह और अमर सिंह की कंपनी के मेजर विंसेट आयर के साथ आख़िरी लड़ाई शुरू हुई थी, तब यह बरगद करीब बीस – बाईस साल का रहा होगा। तोपों के बारूद से गढ़ की एक-एक दीवारें ढह रही थी.” वह कह रहे थे, “तभी इस बरगद ने एक आवाज़ सुनी- ‘भैया, आप और अमर सिंह सबको लेकर निकल जाईये. कंपनी की फ़ौज को हमलोग रोकते हैं..
” यह आवाज़ थी, जागेश्वर प्रसाद सिंह की जो अंतिम गोली के रहने तक मोर्चा संभाले रहे और कुंवर सिंह को अपनी सेना के साथ दूर निकल जाने दिया. कहते हैं, जब विंसेट आयर अपनी टुकड़ी के साथ आँगन के उस मोर्चे पर आया तो देखा कि आँगन में एक आदमी लहू लुहान मृत पड़ा हैं. बूढ़े बरगद के नीचे खड़े दुर्ग विजय सिंह बता रहे थे कि “हमें तो सिर्फ अनुमान हैं; पर इस बरगद के पेड़ ने वह मंज़र देखा जिसे बाद में ढह चुके गढ़ के बचे हुए लोग बताते हैं – “खून से लथपथ जागेश्वर प्रसाद सिंह की लाश आँगन में पड़ी हुई थी, फिर भी अंग्रेज़ सैनिक उसके करीब जाने से डर रहे थे। कई बार संगीनों से भोंककर देखा, लात से ठोकर मारी और जब आश्वास्त हो गए, तब करीब गए। पूरा घर, आँगन ढूंढा, पर कुंवर सिंह नहीं मिले। मिलते भी कैसे, वह तो अंग्रेजी फ़ौज की पकड़ से बहुत दूर जा चुके थे.”
उसके बाद की कहानी तो सबको याद हैं कि कैसे बाँदा, कालपी, कानपुर, लखनऊ, आजमगढ़ आदि में कुंवर सिंह अपने सहयोगियों के साथ कंपनी और ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ते रहे और आखिरी लड़ाई 23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर में लड़ी और अंग्रेज़ कप्तान ली ग्रान्ड को आमने-सामने की लड़ाई में हराकर ब्रिटिश सम्राज्यवाद की नींव हिला दी! पूरे शाहाबाद से अंग्रेजी फ़ौज भाग गई। यह पेड़ चुपचाप जगदीशपुर में इतिहास बनता देखता रहा और गढ़ता रहा भविष्य के भारत की कहानियाँ कि राष्ट्र की आज़ादी के बाद तो उन सबकी दास्ताने लिखी जाएगी जिसे ब्रिटिश इतिहासकारों ने नहीं लिखा।
पर, इस वर्ष 15 अप्रैल 2025 को आई भीषण आंधी में यह बूढ़ा बरगद भी यही आस लिए जड़ से उखड़ गया कि अब किसे पड़ी हैं सही इतिहास की चिंता! कोई तो उसके करीब आता जिन्हें यह जागेश्वर प्रसाद सिंह जैसे अनगिनत सेनानियों की कहानियां सुनाता कि “एक थे जागेश्वर प्रसाद सिंह और एक थी उनकी बंदूक, जो 1857 में लड़ते लड़ते चल बसी!…पर लड़े बहुत बहादुरी से।”
“पर, 23 अप्रैल 1858 को जो हुआ, उसे तो सभी ने देखा और सुना, परन्तु युद्ध में पुरी तरह से घायल होने के बाद 26 अप्रैल 1858 को गुज़र गए बाबू कुंवर सिंह के जाने के बाद जो हुआ, वह बड़ा भयानक था। बूढ़ा बरगद कहता था,
“मैंने दूसरी बार जगदीशपुर को उज़ड़ते हुए देखा। मैंने देखा कि अंग्रेज़ों की फ़ौज ने पूरे जगदीशपुर को घेर रखा हैं, तोपों से निकले बारूद के गोले एक-एक कर गढ़ को ध्वस्त किये जा रहे हैं, अमर सिंह अपनी छोटी टुकड़ी के साथ दक्षिण महाल की तरफ निकल गए हैं। अंग्रेजी फ़ौज लोगों को मारते – उड़ाते मेरे करीब पहुँच गई थी..
कुछ लोगों को उन्होंने पकड़ रखा हैं.. यह क्या, मेरी टहनियों पर मोटी- मोटी डोरियाँ डाली जा रही हैं। मैं अपना सुध-बुध खो रहा था.. अब एक-एक कर लोगों को मेरे ऊपर लटकाया जा रहा था… अनगिनत लोग.. कई दिन लटकते रही उनकी देह…! आज मैं ज़मीन पर पड़ा सोचता हूं कि कैसे 167 वर्ष उनकी स्मृतियों को मैं ढोता रहा। क्या इतिहास मुझे माफ करेगा?…”
और अमर सिंह? बूढ़ा बरगद गवाह हैं कि अंग्रेजी फ़ौज उन्हें ढूंढती रही। कहते हैं, ब्रिगेडयर डगलस और जनरल लुगार्ड के साथ उनका बिहिया, हातमपुर, दल्लीपुर और कई जगह मुकाबला हुआ। 17 से 19 अक्टूबर को दुबारा अमर सिंह का अंग्रेजी फ़ौज से जगदीशपुर में मुकाबला हुआ। 19 अक्टूबर के नोनादी गाँव में तो अमर सिंह के आधिकांश साथी मारे गए, पर वह अपनी एक टुकड़ी के साथ बचकर निकल गये।
कोई कहता कि वह आजीवन पहाड़ियों में अंग्रेजी राज़ के खिलाफ लड़ते रहे, तो कोई कहता हैं कि अमर सिंह नेपाल की तराई में पकड़े गए और जेल में उनकी मौत हो गई तो कुछ का मानना हैं कि वे प्रवासी मज़दूरों के साथ पानी के जहाज में बैठकर मॉरीशस भाग गए। 2010 में एक यात्रा के दौरान मॉरीशस की विद्वान लेखिका प्रो. सुचिता रामदिन ने बताया कि “1858 में आये जहाज में तलवार लेकर एक योद्धा भी मॉरीशस आया था। उसकी तलवार आज भी वहाँ संग्राहालय में पड़ी हुई हैं।”
इस बूढ़े बरगद ने जो कहानी सुनाई, वह भारतीय इतिहास के पन्नों में भी कहीं दर्ज़ नहीं हैं।
कहते हैं, 1857 का युद्ध सिर्फ राजाओं, नवाबों, जमींदारों, किसानों और मज़दूरों ने ही नहीं लड़ा था, उनके साथ क्षेत्र की वनस्पतियों, हवाओं, धरती और उसके अंदर मौज़ूद थिर जल ने भी लड़ा था! संघर्ष के बाद जब बरगद, पीपल और इमली के पेड़ों पर महीनों तक 1857 के सेनानिओं की लाशें लटकती रही, तब इन्हीं वनस्पतियों ने उन्हें मातृत्व की थपकी दी थी। जगदीशपुर में गढ़ के दक्षिण में खड़ा यह बरगद भी पटना, दानापुर, बक्सर, सासाराम आदि जैसे अनगिनत स्थानों से आये सेनानिओं की शरणास्थली भी था और उनकी अंतिम यात्रा का गवाह भी।
अब वह नहीं रहा! नहीं रहा जगदीशपुर में 1857 में हुए संघर्ष का वह आखिरी गवाह! पिछली दो सदियों से वह क्रान्तिकारियों की कहानियां सुनाते रहता था। “The dream who has seen the war of 1857 has gone… Gone for always…! O brave heart kunwar Singh, I have seen you to fight with company fauz in the corridors of gadh…The last light of the revolt..! चला गया वह सपना जिसने 1857 का वह युद्ध देखा था… हमेशा के लिए! ओ बहादुर दिल के योद्धा, हमने तुम्हें कंपनी राज के खिलाफ गढ़ की गलियों में लड़ते हुए देखा हैं… बगावत की वह आखिरी बड़ी मशाल…!”
1857 का वह मूक सिपाही चला गया और साथ ही ले गया अनगिनत कहानियां! इतिहास की वे कहानियां जिन्होंने पूरी सदी का इतिहास चुपचाप अपनी नर्म जड़ों में दफ़न कर दिया। अब कौन सुनाएगा, आनेवाली संतात्तियों को कि “एक थे, कुंवर सिंह! जब 80 वर्ष की उम्र में ज़िंदागियां सोने लगाती हैं, तब उसने तलवार उठाई और चल पड़ा कंपनी साम्राज्य का मुकाबला करने…! वह लड़ा, बहादुरी से लड़ा। अंग्रेज़ सिपाही कभी उसे पकड़ नहीं पाएँ। वह था ही इतना बड़ा योद्धा!”
यह सिर्फ कहानी नहीं हैं, हमारे भारतीय राष्ट्र का इतिहास भी हैं! यह तीसरी दुनिया के देशों का इतिहास भी हैं जो किताबी दस्तावेज़ों में कम; लोगों की स्मृतियों में अधिक भरा पड़ा हैं। हाल ही में गुज़रे पेरू के मशहूर लेखक मारियो वार्गास ल्योसा के क़िस्सागो की तरह जिसकी स्मृतियों में आदिवासी समूह की अनगिनत अनसुनी कहानियां किसी इतिहास से कम नहीं हैं.
इतिहास बनती ऐसी अनगिनत कहानियां बक्सर-जगदीशपुर-सासाराम के ग्रामीण क्षेत्रों और कैमूर की पहाड़ियों में बिखरी पड़ी हैं। जगदीशपुर गढ़ के इस बूढ़े बरगद का जाना इतिहास के एक कथावचक का जाना भी हैं जिसके समूह की स्मृतियों में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास की अनगिनत कहानियां छिपी पड़ी हैं। उन्हें खोजना, ढूंढना और उनसे संवाद करना इतिहास के साथ संवाद करना भी हैं; तब और भी जब जड़ होता इतिहास, इतिहास के मक़बरे में अंतिम सांसें ले रहा हो और उसे जीवंत बनाने वाले बूढ़े बरगद जैसे किसागों एक-एक कर धीरे-धीरे जा रहे हो…!
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