विश्व रंगमंच दिवस स्पेशल : पूंजीवाद से जूझता रंगमंच

जमशेदपुर में 80-90 के दशक में रंगमंच समृद्ध रहा. समर्पण के अभाव, मायानगरी का सपना देखने व अन्य कारणों से यहां वक्त के साथ थियेटर की गतिविधि शिथिल पड़ती गयी.

By Mithilesh Jha | March 27, 2024 9:59 PM
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World Theatre Day Special: जमशेदपुर में अस्सी और नब्बे के दशक में रंगमंच काफी समृद्ध रहा. लेकिन समर्पण के अभाव, मायानगरी का सपना देखने व अन्य कारणों से यहां वक्त के साथ थियेटर की गतिविधि शिथिल पड़ती गयी. रंगकर्मी इस शिथिला की प्रमुख वजह प्रेक्षागृह का अभाव बताते हैं.

रंगकर्मियों को रिहर्सल के लिए नहीं मिलती जगह, खुला मंच नहीं

रंगकर्मियों को रिहर्सल के लिए जगह नहीं मिलती, खुला मंच नहीं है. कुछ प्रेक्षागृह हैं भी तो उसका किराया इतना अधिक है कि उसे वहन करना रंगकर्मियों के बस की बात नहीं. रंगकर्मियों की मानें तो विभिन्न क्लबों और संस्थाओं को नाटक व अन्य कलाओं को बढ़ावा देने के लिए कंपनी की तरफ से जमीन दी गयी थी.

प्रेक्षागृह हो गये कमर्शियलाइज्ड

शुरुआती दौर में सब कुछ ठीक ठाक रहा लेकिन आज क्लब और विभिन्न संस्थाओं के प्रेक्षागृह कमर्शियलाइज्ड हो गये हैं. ऐसे में ऊंचे रेट पर प्रेक्षागृह मिलने लगे हैं. जिसे वहन कर नाटक मंचन करना रंगकर्मियों के बस की बात नहीं. विश्व रंगमंच दिवस पर शहर के थियेटर को नजदीक से देखने की कोशिश करती रिपोर्ट.

प्रेक्षागृह का किराया 40-50 हजार रुपये

वरीय रंगकर्मी हरि मित्तल बताते हैं कि रंगमंच के शिथिल पड़ने की बहुत बड़ी वजह प्रेक्षागृह का अभाव है. प्रेक्षागृह 40-50 हजार रुपये किराये पर मिल रहे हैं. इतनी मोटी रकम कोई भी नाट्य संस्था वहन नहीं कर सकता. दूसरा प्रमुख कारण अच्छे नाटकों का नहीं होना भी है. इसका कारण दर्शक नाटक से दूर हो रहे हैं. रंगकर्मियों में रंगमंच के प्रति समर्पण की भावना भी कम हो गयी है. युवा शुरुआत थियेटर से करते हैं लेकिन उनका लक्ष्य टीवी या फिल्मों में जाना होता है. हर तरह थियेटर मारा जा रहा है.

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कंपनी और सरकार ऑडिटोरियम बनाये

हरि मित्तल बताते हैं कि जमशेदपुर के औद्योगिक घराने यानी टाटा कंपनी और सरकार की तरफ से नाट्य मंचन के लिए ऑडिटोरियम बनाया जाना चाहिए. नाट्य संस्थाओं को यह नॉमिनल रेट में मिलना चाहिए. दूसरा, कला मंदिर बिष्टुपुर की तरफ से भी छोटा ऑडिटोरियम बनाया जा सकता है.

स्तरीय नाटकों का हो मंचन

वरिष्ठ रंगकर्मी कृष्णा सिन्हा बताती हैं कि वर्ष 1980 और 90 के दौर में हमलोगों ने बहुत काम किया. उस समय प्रेक्षागृह कम किराये में मिल जाता था. लेकिन आज प्रेक्षागृह का किराया देना किसी भी नाट्य संस्था के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही है. वह बताती हैं कि एक कमेटी बनानी चाहिए. जो नाटक मंचन के लिए प्रेक्षागृह का रेट तय करे. शर्त यह भी होना चाहिए कि स्तरीय नाटकों का ही मंचन है. ऐसे प्रयास से शायद नाटक मंचन और देखने की परंपरा की फिर से शुरुआत हो जाए.

घटे हैं सार्वजनिक स्पेस

इप्टा की सचिव अर्पिता बताती हैं कि जमशेदपुर में रंगकर्म को लेकर प्रकृति बदली है. अब सब कुछ प्रायोजित हो रहे हैं. सीधे तौर पर देखें तो सार्वजनिक स्पेस घटे हैं. ओपेन गार्डन, मंच नहीं हैं. प्रेक्षागृह का किराया बहुत है. पूंजीवादी समय में हमें इससे जूझना पड़ेगा. रंगकर्मियों के पास इतने फंड नहीं होते कि वह किराये पर प्रेक्षागृह लेकर थियेटर कर सके. वह बताती हैं कि साल में कुछ समय तो ऐसा होना चाहिए जब प्रेक्षागृह मुफ्त में या बहुत कम पैसे में मिले.

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खोजने होंगे छोटे-छोटे स्पेस

अर्पिता यह भी कहती हैं कि अभाव है लेकिन रंगमंच के प्रति हमें समर्पण भी दिखाना होगा. इसी में रहकर हमें विकल्प तलाश करना पड़ेगा. रंगकर्म को लेकर छोटे-छोटे स्पेस खोजने होंगे. दर्शक वर्ग बनाना होगा. इसके लिए स्कूल, कॉलेज अच्छी जगह हो सकती है. वर्तमान में अर्पिता लिटिल इप्टा के साथ काम कर रही हैं. बच्चों के साथ फैज अहमद फैज, जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर वर्मा आदि पर छोटे-छोटे कार्य कर रही हैं.

फिर से शुरू हुआ है सिलसिला

नाट्य निर्देशक अरुणा झा बताती हैं कि पुराने समय से तुलना करें तो अभी रंगमंच थोड़ा मंदा पड़ा है. लोग कम समय में नाम चाहते हैं इसलिए फिल्मों की तरफ भागते हैं. थियेटर में समय देना पड़ता है. अपने शहर में नाटक मंचन के लिए प्रेक्षागृह का किल्लत है. किराया इतना ज्यादा होता है कि आप प्रेक्षागृह ले नहीं सकते.

एक तो अपने पॉकेट से खर्च पर महीने भर रिहर्सल करो, फिर ऊंचे दर पर प्रेक्षागृह लो, यह रंगकर्मियों के लिए मुश्किल हो जाता है. प्रेक्षागृह रियायत दर में मिले इसको लेकर हमलोग प्रयासरत हैं. हाल के वर्षों में जमशेदपुर में नाटक का मंचन हो रहा है. अभी-अभी तुलसी भवन बिष्टुपुर में भोजपुरी नाट्य महोत्सव हुआ.

हमलोग अपने शहर में नाटक नहीं कर पाते

नाट्य निर्देशक शिवलाल सागर बताते हैं कि यह बहाना बनाना कि नाटक देखने दर्शक नहीं आ रहे, गलत होगा. नाटक ही नहीं हो रहा है तो दर्शक कहां से आएंगे. हमलोग सक्रिय हैं. लगातार नाटक कर रहे हैं लेकिन अपने शहर में नाटक नहीं कर पाते. भुवनेश्वर, आगरा, अन्य शहरों में जा-जाकर नाटक करते हैं. इसकी वजह है अपने यहां प्रेक्षागृह का महंगा होना. एक नाटक करने के लिए आपको 60-70 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं.

क्या कहते हैं प्रेक्षागृह के मालिक

हमलोग नाटक मंचन के लिए बहुत ही किफायती दर पर हॉल दे रहे हैं. पांच हजार रुपये में हॉल दे देते हैं. बिजली खर्च भी उसी में रहता है. कॉमर्शियल एक्टिविटी के रेट थोड़े अधिक हैं.

दीपांकर दत्ता, महासचिव मिलानी, बिष्टुपुर

हमलोग 50 प्रतिशत रिबेट पर नाटक मंचन के लिए प्रेक्षागृह दे रहे हैं. रिहर्सल के लिए स्थान भी मुफ्त में देते हैं. हर साल दिसंबर में तो नाटक मंचन के लिए तारीख करीब-करीब फिक्स रहती है.

प्रसेनजित तिवारी, महासचिव तुलसी भवन, बिष्टुपुर

नाटक मंचन के लिए नाट्य संस्थाओं में हमलोग प्रेक्षागृह सब्सिडी रेट में देते हैं. अगर कोई नाट्य संस्था बंगाल क्लब के साथ ज्वाइंटली नाटक का मंचन करे तो उसे मुफ्त में प्रेक्षागृह दिया जाता है. दर्शकों के लिए मुफ्त में कुर्सी भी देते हैं. हमारे यहां अलग से ड्रामा सेक्शन बना हुआ है.

देवाशीष नाहा, पूर्व महासचिव, बंगाल क्लब, साकची
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