शराब की भठ्ठी में लगा दी थी आग
महात्मा गांधी के आह्वान पर अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में काफी सक्रियता दिखायी. इनके मन में ये भावना थी कि कैसे अंग्रेजों को देश से भगाया जाये. हमारा देश आजाद हो जाये. इसी क्रम में वाचस्पति तिवारी ने 9 अगस्त 1942 को शराब की भठ्ठी में आग लगा दी तथा भट्टी को तहस नहस कर दिया. फिर बाद में ये अंग्रेज सैनिकों द्वारा पकड़ लिये गये. पकड़े जाने के बाद अंग्रेज सैनिकों ने इन्हें कैद कर लिया. उस समय इनके पुत्र शारदा प्रसाद तिवारी मात्र एक वर्ष के थे. इन्हें घोड़े पर सवार करके महेशपुरराज थाना ले जाया गया तथा दो दिनों तक थाना हाजत में रखा गया. रास्ते में ये भारत माता की जय का नारा लगाते रहे. थाना हाजत में तरह तरह की यातनाएं दी गयी. दो दिनों तक थाना हाजत में रखने के बाद इन्हें पाकुड़ कारा में स्थानान्तरित कर दिया गया. अंग्रेजों के राज में इन्हें पाकुड़ कारा में भी तरह तरह की यातनाएं दी गई लेकिन ये विचलित नहीं हुए.
जब वे नहीं टूटे तो पाकुड़ कारा में एक सप्ताह तक रखने के बाद इन्हें पटना सेन्ट्रल जेल में स्थानान्तरित कर दिया गया. अगस्त 1942 ई से अप्रैल 1943 ई तक ये पटना सेन्ट्रल जेल में रहे. बाद में अप्रैल 1943 ई में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया. संताल परगना के सभी कैदियों को जेल में एक ही जगह पर रखा गया था, जिसमें दुमका के स्वतंत्रता सेनानी लाल हेंब्रम भी साथ थे. जेल से रिहा होने के बाद ये गोपालपुर में जो अभी बांगलादेश में है, की सुगर फैक्टरी के उच्च विद्यालय में वाचस्पति बतौर एक शिक्षक नियुक्त हो गये. 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दुस्तान – पाकिस्तान का विभाजन होने पर ये पुनः गोपालपुर नहीं गये. उस समय में संताल परगना के क्षेत्र में शिक्षा की घोर कमी थी. इन्होंने ठान लिया कि इस पिछड़े इलाके में शिक्षा का अलख जगाना है.
उधर पाकुड़ राज एवं संताल परगना दुमका जिला मुख्यालय यानी 100 किलोमीटर के बीच में एक भी उच्च विद्यालय नहीं था. इन्होंने 1949 में अपने ग्राम देवीनगर एवं आमड़ापाड़ा के 10 विद्यार्थियों को लेकर एक उच्च विद्यालय स्थापित किया. वाचस्पति तिवारी के पढ़ाये गये दो छात्र आइएएस भी बने. स्वतंत्रता के पच्चीसवें वर्ष के अवसर पर 15 अगस्त 1972 को स्वतंत्रता संग्राम में स्मरणीय योगदान के लिए राष्ट्र की ओर से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें ताम्र पत्र भेंट किया था. स्वतंत्रता सेनानी घोषित होने पर उन्हें प्रशस्ति-पत्र एवं 200 रुपये मासिक स्वतंत्रता सेनानी पेंशन दिया जाने लगा. जून 1976 में ये आमड़ापाड़ा उच्च विद्यालय से सेवानिवृत्त हुए. 8 दिसम्बर 1976 को अपने पैतृक गांव देवीनगर में उन्होंने अंतिम सांस ली. इनका सिद्धान्त था ‘Duty First and self last’. इनके सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुए उनके दो पुत्र क्रमशः शारदा प्रसाद तिवारी एवं महेश्वर प्रसाद तिवारी शिक्षा विभाग के उच्च विद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए एवं बच्चों को शिक्षित करने का काम किया. इनके छोटे पुत्र महेश्वर प्रसाद तिवारी बतौर प्रधानाध्यापक रामकृष्ण आश्रम उच्च विद्यालय दुमका से सेवानिवृत हुए.